हिंदुस्तानियों के भोजन में रोटी की अहमियत किसी से छिपी नहीं है। लेकिन यह तुर्की भाषा का शब्द है। इसका मतलब है कि भारतीय भोजन के सबसे लोकप्रिय हिस्से की जड़ें तुर्की परंपराओं में रही हैं। उत्तर भारत में जलेबी, कचोरी और आलू की सब्जी नाश्ते का एक बुनियादी हिस्सा है। जलेबी भी तुर्कों के साथ यहां आई थी। कचोरी प्राचीन भारतीयों की देन थी जबकि आलू यूरोपियों के साथ दक्षिण अमेरिका से यहां आया था। गरीबों का मेवा कही जाने वाली मूंगफली भी दक्षिण अमेरिका से ही आई थी। हलवा, समोसे और एक प्याली चाय के बिना हमारी शाम की बैठकें पूरी नहीं होतीं। मजे की बात यह है कि हलवा और समोसा भी तुर्कों से हमें मिले हैं। चाय की खोज चीनियों ने की थी। बाद में यही चाय अंग्रेजों के साथ भारत आ पहुंची। इसी तरह कॉफी अफ्रीका से हम तक पहुंची है। उत्तर भारत की प्रमुख सब्जियों में शामिल गोभी तथा मूली यूरोपियों की देन हैं। सोयाबीन चीन से आई है और हमारी सब्जियों की जान मिर्च व स्वादिष्ट अमरूद मैक्सिको की पैदाइश हैं। भारत में पराठे का आविष्कार भी तुर्कों ने किया था। बिरयानी, कबाब और न जाने कितने मांसाहारी खाद्य पदार्थ भी इन्हीं बाहरी संस्कृतियों से यहां आए हैं।
संस्कृतियों में लेन-देन कभी इकतरफा नहीं होता।
पहनावे की बात करें, तो आज जब कोई खूबसूरत लड़की सलवार, शमीज और दुपट्टा पहले निकलती है तो हम यही मानते हैं कि वह शुद्ध भारतीय ड्रेस पहने है। परन्तु असल में उस समय वह दो परंपराओं के मेल का प्रतिनिधित्व कर रही होती है। सलवार और शमीज तुर्क-फारसी परंपरा से निकले हैं जबकि दुपट्टा प्राचीन भारतीय परंपरा की देन रहा है।
हम औरों से सीखते हैं तो बहुत कुछ सिखा भी रहे होते हैं। कुछ ग्रहण करते हैं तो कुछ देते भी हैं। उदाहरण के तौर पर भारतीयों द्वारा खोजे और पैदा किये गए बैंगन, सेम, करेला, कटहल, गिल्टी, टिंडा, परवल, आम, संतरा, अदरक, काली मिर्च आदि बहुत सारे फल, मसाले और सब्जियां दूसरे देशों तक पहुंचे हैं तथा वहां की संस्कृतियों के हिस्से बने हैं। यही बात पहनावे पर भी लागू होती है।
(साभार : इंस्टीट्यूटफ़ॉर सोशल डेमोक्रेसी)