“सारी दुनिया” का पुनः प्रकाशन काफ़ी समय बाद हो रहा है, तो ऐसे में आपके मन में यह सवाल उठना भी लाज़िमी है कि आखिर इस पत्र को फिर से शुरू करने की ज़रूरत क्यों महसूस हुई। इस “क्यों” पर बात करने से पहले मैं बताना चाहता हूँ कि यह कोई फौरी भावावेश में, आत्मतुष्टि के लिए उठाया गया कदम नहीं है, अपितु देश और समाज के वर्तमान हालात, आम जनता में व्याप्त हताशा, निराशा एवं विकल्पहीनता की भावना तथा इसमें मीडिया की भूमिका पर कई महीनों के गंभीर विचार-विमर्श के बाद लिया गया सुविचारित फैसला है।
आज लोगों का मुख्यधारा के मीडिया से पूरी तरह विश्वास उठ चुका है। इसका मुख्य कारण है कि हमारा मीडिया (यानी समाचार पत्र-पत्रिकाएँ और टीवी चैनल) केवल अपने निहित स्वार्थों को पूरा करने, ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफा कमाने, व्यावसायिक हितों को साधने और सत्र में हिस्सेदारी बनकर संसाधनों पर कब्ज़ा करने की होड़ में लिप्त है। सच को झूठ और झूठ को सच की तरह परोसा जा रहा है। टीवी एंकर राजनैतिक दलों के प्रवक्ताओं से व्यवहार कर रहे हैं। खबरें छुपाई जा रही हैं, खबरें घड़ी जा रही हैं और खबरों को विकृत किया जा रहा है।जिससे आमजन भ्रम की स्थिति में है। कम पढ़े-लिखे या ग्रामीण ही नहीं, शहरी और उच्च शिक्षितव्यक्ति भी ‘खबरों’ या ‘कार्यक्रमों’ के पीछे के सच को जान पाने में असमर्थ महसूस करते हैं।
इसका सबसे बड़ा नुकसान यह हो रहा है कि ‘छद्म मुद्दे’, काल्पनिक समस्याएँ हावी हो गयी हैं और जनता की वास्तविक समस्याएँ, लोगों के जीवन से जुड़े मुद्दे लगभग हाशिये पर चले गए हैं। अब लगभग हर चैनल या अखबार में ‘जनहित’ या ‘समाजहित’ की बजाय इनके मालिकों के व्यावसायिक हितों को ध्यान में रखकर खबरें परोसी जा रही हैं। इसके चलते न केवल लोगों का सच तक पहुँचना मुश्किल हो गया है, बल्कि मीडिया की विश्वसनीयता भी तेज़ी से घटी है और लोग अखबारों तथा टीवी चैनलों को संदेह की नज़र से देखने लगे हैं।
ऐसे में सोशल मीडिया, यानीव्हाट्सअप, ट्वीटर, फेसबुक आदि ने एक विकल्प देने की कोशिश की, परंतु यहाँ भी विश्वसनीयता का संकट बना हुआ है। सोशल मीडिया पर इतनी झूठी, पायरेटेड, काल्पनिक, भ्रामक और आधारहीन सामग्री परोसी जा रही है की सच्ची बात पर भी भरोसा नहीं होता। अलबत्ता बड़े पैमाने पर अलग-अलग तरह से झूठी और तथ्यहीन सामग्री वायरल करके लोगों के बीच नफ़रत, अविश्वास और अफरातफरी का माहौल बनाने के प्रयास भी बदस्तूर जारी हैं।
इन परिस्थितियों में सवाल यह उठता है कि जनता की आवाज़ को अभिव्यक्ति कौन दे? विभिन्न मुद्दों पर आमजन, विशेषकर युवा पीढ़ी को शिक्षित, जागृत एवं विकसित कौन करे? वैज्ञानिक समझ और समानता जैसे लोकतांत्रिक मूल्यों को प्रस्थापित करने तथा सामाजिक चेतना जगाने की ज़िम्मेदारी कौन ले? सरकारों की कमजोरियों को सामने लाकर बुनियादी समस्याओं के निवारण हेतु जन कल्याणकारी नीतियों को लागू करवाने में हस्तक्षेपकारी भूमिका कौन निभाए? इसके लिए बुद्धिजीवी और चिंतक बड़ी शिद्दत से वैकल्पिक मीडिया की ज़रूरत महसूस करते रहे हैं।
आज़ादी से पूर्व स्वाधीनता संग्राम में लघु पत्र-पत्रिकाओं ने बेहद सार्थक भूमिका निभाते हुए देश की आज़ादी में महत्वपूर्ण योगदान दिया था। आज़ादी के बाद भी इन्होंने जनता की ज़रूरतों के अनुसार अलग-अलग विषयों और क्षेत्रों को आधार बनाकर न केवल लोगों को शिक्षित किया बल्कि शोषण के खिलाफ़ उनके संघर्षों को परिणीति तक पहुँचाने में भी साथ दिया। पत्र-पत्रिकाओं की इसी भूमिका को रेखांकित करते हुए मशहूर शायर अकबर इलाहाबादी ने कहा था –
खींचो न कमानों को, न तलवार निकालो
जब तोप मुक़ाबिल हो तो अखबार निकालो
‘सारी दुनिया’ इसी गौरवशाली परंपरा की एक छोटी सी कड़ी है। हम इसे सामाजिक बदलाव के लिए अभिव्यक्ति का एक सकारात्मक मंच मानते हैं और पूरी निर्भीकता से ‘छुपे हुए या जान बूझकर छुपाए गए’ सच को जनता तक पहुँचाने की ज़िम्मेदारी उठाने के लिए तैयार हैं। इस दृष्टि से लोगों के मुद्दों को उठाने, युवाओं को रचनात्मक अभिव्यक्ति के अवसर देने और उन्हें संवेदनशील इंसान तथा बेहतर नागरिक के रूप में विकसित करने का भी भरसक प्रयास ‘सारी दुनिया’ के माध्यम से किया जाएगा।
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