: अनिल कथूरवाळ
किसान आंदोलन को 66 दिन हो चुके हैं। 66 दिनों में एक भी ऐसी घटना नहीं हुई जो हिंसक गतिविधि से देखी जा सके। हालांकि कुछ लोग कह रहे हैं कि 26 जनवरी लालकिले पर हिंसा के जिम्मेदार किसान ही हैं। अब ये कहने वाले लोग कौन हैं? ये सब पूरा देश जानता है। ये वही लोग हैं जिन्होंने 30 जनवरी 1948 को महात्मा गाँधी को गोली मारी थी। तो इसलिए इनके मुहँ से अहिंसा की बात अच्छी नहीं लगती और ये वही लोग हैं जो भारत छोड़ो आंदोलन में ब्रिटिश सरकार के साथ खड़े थे और कह रहे थे कि ब्रिटिश सरकार भारत छोड़ कर ना जाये जो लोग आंदोलन कर रहे हैं उनको उठा कर जेल में डाले या गोली मार दी जाये।
ये बात इतिहास की किताबों में आपको पढ़ने को मिल जायेगी। बिल्कुल वैसी ही बात ये लोग आज भी कर रहे हैं। ये लोग आज भी पुलिस और सरकारी हिंसा को जायज बता रहे हैं और किसानों के आंदोलन को कुचलने की बात कर रहे हैं। किसान नेता रो रहा है तो ये लोग हंस रहे हैं। ठीक वैसा ही इन लोगों ने भारत छोड़ो आंदोलन में किया था।
ये लोग तब भी गाँधी,नेहरू,सरदार पटेल और आंदोलन के नेताओं की गिरफ्तारी पर खुशियाँ मना रहे थे। उनके विरोध में अपनी पत्रिकाओं में लिख रहे थे और बयान दें रहे थे। उस समय पर भारत छोड़ो आंदोलन स्वतंत्रता का आह्वान था। गाँधी ने ब्रिटिश विरोधी आक्रमण पर अपने विचारों को स्पष्ट करते हुए घोषणा की कि स्वतंत्रता से कम कुछ नहीं। इस आंदोलन का भी यही नारा है। तीनों कानून चकना चूर, इससे कम ना कुछ मंजूर। गाँधी के सभी आंदोलनों से अलग भारत छोड़ो आंदोलन ब्रिटिश सरकार से अंतिम वापसी का अल्टीमेटम था। यहां पर भी किसान नेताओं ने सरकार को आखरी हद तक झुकाने का अल्टीमेटम दें रखा है।
भारत छोड़ो आंदोलन गाँधी के नेतृत्व में गैर गाँधीवादी आंदोलन था। क्योंकि गाँधी ने आत्मरक्षा के लिए हथियार उठाने के लिए ललकारा और अधिक शक्तशाली था सुसस्जित आक्रमण के विरोध शस्त्र द्वारा प्रतिरोध के लिए कहा। यही सब दिल्ली के लाल किले में हुआ। यहां किसी ने किसी को कहा तो नहीं लेकिन किसान जब तक लाल किले पर पहुँचे तो उनको हद से ज्यादा परेशान किया जा चुका था।
फिर लाल किले पर किसानों पर पर पुलिस द्वारा चलाई गयी गोलियों और डंडो ने किसानों के गुस्से की परीक्षा लेनी चाही जिसका परिणाम ये हुआ कि किसानों ने पलट कर हमला किया, जिसको झेलना पुलिस के लिए संभव नहीं था। बहुत सारे लोग घायल हो गये। दूसरी तरफ किसान नेताओं के नेतृत्व में किसान परेड शांति प्रिय तरीके से निकाली गयी। दोनों आंदोलन के लिए मैं एक लाइन बोलना चाहूंगा जिसने आंदोलन की स्थिति को बदल दिया। जब लोगों दवारा सरकार को दी जाने वाली थोड़ी बहुत मान्यता भी जानबूझ कर वापस ले ली जाती है तो सरकार की कोई सत्ता नहीं रह जाती, और सत्ता अपना बदला लेने के लिए दमन का सहारा लेती है। यही सब उस समय पर हुआ, सभी नेताओं को गिरफ्तार किया गया। लोगों की सुविधाओं को रोका गया। जनता के अंदर डर पैदा किया गया ताकी आंदोलन को कुचला जा सके। लेकिन जब लोग सत्ता आदेश को आदेश ना माने तो सरकार के हर तरीके के दमन को गुंडागर्दी का काम माना जाता है।
बिल्कुल ऐसा ही आज भी हो रहा है। जनता को डराया जा रहा है, किसान नेताओं पर FIR की जा रही हैं, ताकी लोग डर के मारे वापस चले जाये, जिस प्रकार राष्ट्रीय अस्मिता की बात की जा रही है उसी तरह उस आंदोलन में भी ब्रिटिश सरकार लोगों को विश्व युद्ध की घटनाओं से डरा रही थी। जिस तरह अब किसानों के शांति मार्च को लोगों के दिमाग़ से निकाल दिया गया है उसी तरह तब भी लोगों के दिमाग़ से विश्व युद्ध में ब्रिटिश सेना में भर्ती भारतीयों के बलिदान को नहीं दिखाया जा रहा था। जर्मनी इटली का डर लोगों को दिखाया गया,सरकार के विरोध को आतंकवादी घटना कहा गया। ठीक उसी तरह आज भी किसान आंदोलन में सरकार के विरोध को देश का विरोध कहा जा रहा है और ख़ालिस्तानी साबित करने की कोशिस की जा रही है।
राष्ट्रीयता के नाम पर झंडे का अपमान बताया जा रहा है। जबकी ये एक कोरा झूठ है। लालकिले पर एक खाली पड़े पोल पर सिख गुरूद्वारे का झंडा लगाना किसी प्रोटोकॉल का उल्लंघन नहीं माना जा सकता। 26 की ही खबर है कि प्रधानमंत्री ने खुद झंडे पर अपने ऑटोग्राफ दिये थे, जबकी झंडे पर कुछ भी लिखना फ्लैग कोड का उलंघन है। जिस झंडे को लालकिले पर एक खाली पड़े पोल पर लगाया था उसी झंडे को सिख रेजिमेंट की परेड के दौरान भी दिखाया गया और लहराया गया है। एक साथ करोड़ो झंडो का लहराना किसान का अपने देश के प्रति गहरा प्रेम दिखाई देता है। देश में आज़ादी के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने 50 साल तक तिरंगे को अपने हेडक्वाटर पर नहीं लगाया और ना कभी गणतंत्र दिवस मनाया। लेकिन इसको हम देशद्रोही कहे तो वो भी गलत होगा। क्युंकि इसको व्यक्ति की अभिव्यक्ति की आजादी से देखा जाएगा। लालकिले वाले प्रकरण को भी इसी आधार पर देखा जाना चाहिए। लेकिन यहां पर सब कुछ उल्टा हुआ। किसानों को ख़ालिस्तानी बोला गया, मीडिया ने भ्रम फैलाने में जितना हो सकता था उतना जोर लगाया। आंदोलन को एक भारी नुकसान होते दिखा।
27 की रात को बड़ौता के धरने पर सोते हुए लोगों पर लाठीचार्ज किया गया और उनको रात को ही वहा से भगाया गया। ठंड के अंदर पानी की बौछारे की गयी, गाजीपुर बॉर्डर पर लोगों की पीने के पानी की लाइन काट दी गयी, बिजली काट दी गयी, सूचना तंत्र बंद कर दिया गया लोगों को को ये तक नहीं पता चल पा रहा था कि दूसरे धरणो पर बैठे उनके किसान साथियों के साथ हो क्या रहा है? अफवाहे उड़ उड़ कर आ रही थी कि किसानों को लठियो से पीटा जा रहा है जो पड़ोसी गाँव के लोग अब तक किसानों के साथ थे वो इकठे हो रहे हैं किसानों को भगाने के लिए और चारो तरफ से पुलिस का जो घेरा बनाया गया वो लोगों में इन अफवाहों और डर को मजबूत कर रहा था। लोगों के अंदर इतना डर बना दिया गया कि लोग असहाय नजर आये। धरने स्थल को छोड़ कर जाना किसानों की मज़बूरी बना दी गयी।
इस तरह के अमानवीय बरताव से ऐसा महसूस किया जा सकता है जैसे भारत के बटवारे के समय भारत से पाकिस्तान जाने वाले और पाकिस्तान से भारत आने वाले लोगों को लगा होगा कि अब क्या होगा? ना खाना है ना पानी है, ऊपर से सामने हथियार बंद पुलिस वाले। जहाँ तक मैं महसूस कर पा रहा हुँ कि लोगों के मन में एक दहसत फैल गयी थी जिसके कारण लोग अपनी जान बचाने के लिए आधी रात को ही घर की तरफ लोटकर चले गये। यही कारण था कि गाजीपुर बॉर्डर से एक दम से किसानों की संख्या कम हो गयी। ऐसा ही कुछ भारत छोड़ो आंदोलन में भी हुआ। हालांकि एक बात उस समय की ठीक थी कि अख़बार और मीडिया आंदोलन के पक्ष में थी। जबकी अब मीडिया सरकार के पक्ष में नजर आयी। गाँधी जी और कांग्रेस के लोग उस समय चिंतित थे कि कैसे आंदोलन को रोका जाये। आंदोलन टूटता जा रहा था। जिस तरह गाँधी के लिए ये आंदोलन उनके जीवन का अंतिम युद्ध था वैसे किसान नेताओं के लिए किसान आंदोलन अंतिम युद्ध की तरह है। सारे किसान नेता मायूस हो रहे थे। 28 की सुबह जब किसान नेताओं ने किसान टेंटो में दौरा किया तो लोगों के चेहरे उतरे हुए थे। किसान नेता किसानों की 64 दिन से लगाई उम्मीद पर खरे उतरते नजर नहीं आ रहे थे। 200 किसानों की मौत जब भी जहन में आती होगी और आंदोलन का असफलता की तरफ बढ़ते देख कर किसान नेता शायद किसी से नजर मिला पा रहे हो। इन कानूनों से किसान की किसानी खत्म होगी या नहीं ये भविष्य के गर्भ में है। लेकिन ये मैं अवश्य देख पा रहा हुँ कि भारत में शायद ही कभी ऐसा आंदोलन खड़ा हो पायेगा। जिस तरह गाँधी के लिए भारत छोड़ो आंदोलन में प्रतीक्षा का कोई विकल्प नहीं था उसी तरह किसान आंदोलन में भी प्रतीक्षा नुकसानदायक साबित हो रही थी और ज्यादा प्रतीक्षा करना अपमानजनक भी होने वाला है। इसलिए गाँधी जी ने लोगों को करो या मारो के नारे का अनुसरण करने का आह्वान यह कह कर कर दिया,
“हम या तो देश को स्वतंत्र करेंगे या इस प्रयास में मर जायेंगे, हमें अपने गुलामी के पाप कर्म को देखने के लिए जीवित नहीं रहना चाहिए। प्रत्येक सच्चे कांग्रेसी, पुरुष या स्त्री, को देश को परतंत्रता के बंधन में देखने के लिए जीवित न रहने के दृढ निर्णय के साथ संघर्ष में शामिल होना चाहिए।”
यही भाव राकेश टिकैत के मीडिया के सामने निकले आंसुओ में भी दिखाई दी। 28 की शाम को राकेश टिकैत जब गाजीपुर धरना स्थल पर पहुँचे तो उन्होंने जब किसानों के चेहरों पर मायूसी देखी और सरकार ने राकेश टिकैत को गिरफ्तारी के आर्डर दें दिये और धरने को उठाने का 2 घंटे का समय दिया गया और लोगों को धरने स्थल पर प्यासा पाया तो वो शायद अंदर से टूट गये। सरकार अपने मकसद में कामयाब होती नजर आ रही थी। अपने भाषण में राकेश टिकैत ने भावुक होकर कहा,
“हम कोई गिरफ्तारी नहीं देंगे, ना हम धरना खत्म करेंगे, लखनऊ पास लगी गाडी यहां पर आयी है जिसमें हथियारों समेत गुंडे भेजे गये हैं। मुझे मारने की कोशिस की जा रही है। हम किसान कानून वापिस करवा कर ही वापस जायेंगे। अगर किसी ने मुझे हाथ भी लगाया या मेरे किसान साथियों को हाथ लगाया तो यही मंच पर फाँसी लगा लूँगा। हम मर जायेंगे लेकिन वापस नहीं जायेंगे। किसान बिरादरी को बदनाम किया रहा है, किसान को आतंकवादी कहा जा रहा है। मैंने पुरे परिवार से अलग जाकर बीजेपी को वोट किया था। अब वही लोग हमें बदनाम करने पर तुले हुए हैं। हमें मारने की साजिशें की जा रही हैं। “
राकेश टिकैत ने किसानों से आह्वान किया कि किसानों आपका पानी काट दिया गया है, अब पानी तब पिऊंगा जब मेरे गाँव के किसान पानी लेकर आएंगे। ये सब बाते कहते हुए राकेश टिकैत के आंसू नहीं रुक रहे थे। उनकी भावुकता देख कर लग रहा था की गाँधी ने करो या मारो का नारा दें दिया हो।
लोगों की लगातार गिरफ्तारियां और सरकार के दमन ने जिस तरह भारत छोड़ो आंदोलन को तोड़ दिया था उसी समय पर गाँधी ने गुलामी को पाप खाकर वापस आंदोलन को जोड़ दिया। ठीक वैसे ही राकेश टिकैत की भावुकता और पानी काटने वाली बात ने किसान आंदोलन में जान फूँक दी। आधी रात को हरियाणा पंजाब उतर प्रदेश में लोगों के डर को खत्म कर दिया और अपने नेता के आंसुओ को खुद का अपमान मान लिया। यही कारण था कि विभिन्न गाँवो से सैंकड़ो ट्रेक्टर दोबारा से रात को ही दिल्ली धरणो के लिए रवाना हो गये। हरियाणा के बहुत सारे गाँवो में खाप पंचायतो ने रात को ही पंचायत बुलानी शुरू कर दी। राकेश टिकैत के गाँव से भारी संख्या में लोग रात को ही चल दिये। हरियाणा के कुछ जनूनी लोग आँखों में आंसू लेकर रात को ही धरने पर पुरे परिवार के साथ चले गये। अचानक से लोगों के मन में दोबारा उम्मीद बंध गयी। 28 को रात को शायद ही कोई ढंग से सो पाया हो। क्युंकि लोगों को लग रहा था कही पुलिस बर्बरता ना कर दें। इसलिए कुछ लोग रात को ही गाजीपुर बॉर्डर पहुंचने लगे। ये इस किसान आंदोलन की अस्मिता का सवाल आ गया था।
मैं इसे आंदोलन का दूसरा चरण कहूंगा। अब आंदोलन एक नये जोश के साथ खड़ा होगा। अब आंदोलन सिर्फ किसान कानूनों का नहीं रह गया है। अब आंदोलन भावनात्मक हो गया है। किसान आंदोलन का भविष्य क्या होगा ये तो आने वाला समय ही बताएगा? लेकिन भारत छोड़ो आंदोलन ने जिस तरह ब्रिटिश राज का भविष्य तय कर दिया था उसी तरह ये आंदोलन बीजेपी के राज का भविष्य तय जरूर करेगा। क्युंकि भारत में 65% जनता किसानी से जुड़ी हुई है और उसमें हर धर्म, हर जाति, और हर वर्ग का हित जुड़ा हुआ है। इस आंदोलन में किसान, छात्र, नौजवान, महिला, बच्चे, बुजुर्ग, व्यापारी, दलित और मजदूर सभी ने हिस्सा लिया हुआ है। भारत छोड़ो आंदोलन में भी हर एक वर्ग ने अपनी भूमिका निभाई थी। दोनों आंदोलनों में एक समानता और भी है उस समय पर मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा ने खुद को आंदोलन से अलग कर लिया था। उसी को देख कर ब्रिटिश प्रधानमंत्री, चर्चिल ने कहा था कि कांग्रेस सभी का प्रतिनिधित्व नहीं करती और यह भारत कि नहीं है। इस आंदोलन में भी सरकार और मीडिया ने यही कहा है कि इस आंदोलन में सिर्फ हरियाणा, पंजाब, उतर प्रदेश के किसान शामिल हैं। बाकी राज्यों के किसान इसमें शामिल नहीं हैं। इससे ये साबित नहीं होता कि बाकी राज्यों के किसान इन कानूनों को अच्छा बता रहे हैं जिस तरह मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा ब्रिटिश राज को अच्छा नहीं बता रही थी। गुलामी किसी को पसंद नहीं होती उसी तरह गुलामी हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग को भी पसंद नहीं थी। बस वो लोग गाँधी को पसंद नहीं करते थे और उनके वैचारिक और मानसिक भेद अलग अलग हो सकते हैं। चीजों को देखने का नज़रिया अलग अलग हो सकता है। जिस तरह भारत छोड़ो आंदोलन के बाद भारत की आजादी की प्रक्रिया शुरू हुई उसी तरह इन कानूनों की वापसी से किसान का शासन में मजबूत होना लाजमी है। 28 की रात गाजीपुर धरने पर किसानों ने जाग कर काटी है। लोग ना उम्मीद में बैठे थे, हौंसला टूट चुका था। लेकिन सुबह हजारों ट्रैक्टरो की भीड़ को देख कर जो समा बदला है उसको देख कर भाईचारे की एक मिशाल कायम हुई है। राकेश टिकैत को गाँव वालों ने पानी पिलाया जिससे टिकैत भावुक हुए। इस नज़ारे को देख कर समझा जा सकता है कि आंदोलन दोबारा किस हद तक जाने की उम्मीद है।
निष्कर्ष के तौर पर कहा जा सकता है कि जिस तरह भारत छोड़ो आंदोलन मजबूती से उठा और गाँधी में वैचारिक बदलाव आया तो लोगों में जोश भी दुगना हुआ था बेशक़ आंदोलन बीच में कमजोर हुआ हो लेकिन लगातार संघर्ष ने आज़ाद भारत को जन्म दिया। किसान आंदोलन भी शुरू में पुरे जोश के साथ खड़ा हुआ, 26 जनवरी को समन्वय की कमी के कारण कुछ गलतियां जरूर हुई हैं जिससे आंदोलन को नुकसान हुआ है। लेकिन दोबारा तेज होते आंदोलन के बारे सिर्फ अनुमान लगाया जा सकता है। अगर संघर्ष लगातार चलता रहा तो परिणाम भारत की आजादी जैसा ही होना है। ब्रिटिश राज खतम हुआ था जेलों में बंद लोग रिहा हुए थे सभी मुक़दमे वापस हुए थे। अब ये किसान आंदोलन का दोबारा से उठना भी किसी नये कल की तरफ संकेत कर रहा है। जनता की ताकत किसी भी आंदोलन की असली ताकत होती है। अवतार सिंह भड़ाना का इस्तीफा, अभय सिंह चौटाला का इस्तीफा किसान आंदोलन की ताकत को दिखा रहा है। गाँव गाँव में दोबारा जाना होगा। एक बार फिर से आंदोलन की रुपरेखा तैयार होती नजर आ रही है। हो सकता है सरकार कोई ओर चाल चले। जहाँ तक मेरा अनुमान है सरकार CAA आंदोलन को तोड़ने वाली ही चाल चल सकती है (स्थानीय विरोध)। लेकिन इस मामले में दिल्ली और हरियाणा उतर प्रदेश में अंतर भी है। यहां सामूहिकता से काम चलता है। किसान नेताओं और किसानों के लिए आने वाले दिन बहुत ज्यादा मुश्किल भरे होने वाले हैं। भारत छोड़ो आंदोलन में लड़ाई सीधी विदेशी ताकत से थी, लेकिन यहां पर लड़ाई सीधे तौर अपने देश की सरकार से है। इस चुनौती भरे समय में आपकी रणनीति आपको कामयाब करेगी। गाँधी ने कहा था, “सत्याग्राही को मरने के लिए न कि जीने के लिए निकलना चाहिए, उन्हें मृत्यु की कामना और उसका सामना करना चाहिए, जब लोग मरने के लिए निकलेंगे तभी देश जीवित रहेगा। करेंगे या मरेंगे।