दिल्ली की जनता ने देश को नई राह दिखाई है। सीएए-विरोध, जामिया-जेएनयू हिंसा, शाहीनबाग आदि के इर्दगिर्द हिंदू-मुस्लिम के नाम पर जनता को बांटने वाली नकारात्मक राजनीति को दरकिनार कर दिल्लीवासियों ने विधानसभा चुनाव में विकास के मुद्दे पर वोट दिया। 9 महीने पहले लोकसभा चुनाव में ‘आप’ को 18 प्रतिशत वोट देकर चित्त करने वाली दिल्ली ने विधानसभा चुनाव में उसी ‘आप’ पर भरोसा जताया और 53 प्रतिशत से अधिक मतों के साथ भारी बहुमत से तीसरी बार सत्ता सौंप दी। पहली सुखद बात यह रही कि लोगों ने विभाजनकारी धार्मिक राजनीति को नकारने का साहस दिखाया। चालीस फीसदी मुस्लिम आबादी वाले इलाके में अमानतुल्लाह खान को 82 फीसदी वोट मिले। गोली मारने जैसे भड़काऊ बयान पूरी तरह धराशाही हो गए। यानी, लोगों ने सरकार के विरोध और देश के विरोध में फर्क को समझकर अपने विवेक से वोट दिया। दूसरे, शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, पानी, जैसे जीवन के वास्तविक मुद्दे चुनाव के केंद्र में रहे। जाहिर है कि लोगों ने इन्हीं के आधार पर वोट दिया। जनता का यही विवेक भारतीय लोकतंत्र की आत्मा है, यही इस देश की ताकत व राजनीति की ड्राइव फोर्स है और इसी में सकारात्मक बदलावों की उम्मीद भी अंतर्निहित है। हालांकि इस जीत में केजरीवाल की चुनावी रणनीति भी महत्वपूर्ण रही। इसके बावजूद दिल्ली की जनता का यह फैसला निस्संदेह देश की राजनीति में प्रभावशाली भूमिका निभाएगा।
उम्मीद की किरण दिखाती हमारी न्याय प्रणाली…
सत्ता लोलुप राजनीति से जब भरोसा उठने लगे, शासन-प्रशासन जन-आकांक्षाओं पर खरा न उतरे और न्याय की संभावनाएं खत्म होती-सी दिखाई देने लगे, तो उम्मीद की आखिरी किरण बचती है…न्यायपालिका। दिक्कतें वहाँ भी हो सकती हैं। लंबी और महंगी कानूनी प्रक्रिया एक बाधा है। इसके बावजूद भारतीय न्याय प्रणाली ने महत्वपूर्ण अवसरों पर देश को रास्ता दिखाते हुए जनता के अधिकारों की सुरक्षा का काम किया है। फिर चाहे वह ‘निजता’ के अधिकार की रक्षा की बात हो, या ‘समानता’ के अधिकार की। ये दोनों मौलिक अधिकार महत्वपूर्ण मानव अधिकार हैं, न्यायसंगत समाज की आत्मा हैं और इंसान की गरिमा को स्थापित करते हुए इंसान-इंसान के बीच भेदभाव को रोकते हैं। हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने लैंगिक आधार पर महिलाओं के साथ हो रहे भेदभाव पर बड़ा फैसला देते हुए सेना में महिलाओं को ‘स्थाई कमीशन’ और ‘कमांड पोस्टिंग’ देने का रास्ता साफ किया है। 17 साल लंबी कानूनी लड़ाई के बाद कोर्ट ने सरकार के इन तर्कों को नकार दिया कि महिलाओं की सामाजिक सीमाएं होती हैं, या पुरूष सैनिक महिलाओं के आदेश लेने को तैयार नहीं हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार की सोच को रूढ़िवादी बताया और इसे महिलाओं के साथ-साथ सेना का भी अपमान बताते हुए इस मानसिकता को बदलने का सुझाव दिया। सेना की 51 महिला अधिकारियों की याचिका पर फैसला सुनाते हुए अदालत ने कहा कि महिलाओं ने कदम-कदम पर अपनी क्षमताओं को साबित किया है और वे सेना सहित हर क्षेत्र में प्रभावी भूमिका निभा रही हैं। निस्संदेह यह फैसला न केवल सशस्त्र सेनाओं में औरतों को बराबरी के अवसर देगा, बल्कि सामाजिक सोच को बदलने में भी महति भूमिका निभाएगा।
इसके साथ ही सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार की नीतियों और कानूनों को लेकर विरोध जताने व प्रदर्शन करने के जनता के अधिकार की भी रक्षा की है। शाहीनबाग का धरना उठवाने और सीएए के खिलाफ प्रदर्शन करने वालों को देशद्रोही करार देने से संबंधित डाली गई याचिकाओं पर टिप्पणी करते हुए न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया कि सरकार का विरोध, देश का विरोध नहीं है। लोगों को शांतिपूर्वक प्रदर्शन करने से रोकना भिन्न विचारों को दबाना है, जो लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है। यही नहीं, महाराष्ट्र और कर्नाटक उच्च न्यायालय ने भी सीएए से संबंधित प्रदर्शनों के संदर्भ में ही जनता की आवाज को दबाने के लिए धारा 144 जैसे दमनकारी प्रावधानों के प्रयोग पर नाराजगी जताई है और इनके प्रयोग पर रोक लगाने का आदेश दिया है। महाराष्ट्र में तो कोर्ट ने यहां तक कह दिया कि दूसरे समुदायों, कमजोर तबकों के हितों की रक्षा के लिए प्रदर्शनों में भाग लेकर लोग भारतीय संविधान की ‘भाईचारे’ की भावना को ही मजबूत कर रहे हैं। कर्नाटक में सीएए के खिलाफ स्कूल में नाटक करने पर स्कूल संचालकों, अभिभावकों व बच्चों पर देशद्रोह की धाराएं लगाने पर भी स्थानीय न्यायालय ने कठोर टिप्पणी करते हुए आरोपियों को समुचित राहत प्रदान की है। कुल मिलाकर, अदालतों के ये फैसले लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करने वाले हैं, जिनका दूरगामी असर पड़ेगा।