स्थानीय सामाजिक संस्था सप्तरंग द्वारा नागरिकता कानून में संशोधन एवं नागरिकता रजिस्टर पर हुई विचार गोष्ठी में यह उभरकर सामने आया कि देश के उतरपूर्व के इलाकों में नागरिकता कानून में संशोधन का विरोध अलग कारणों से हो रहा है और शेष देश में अलग कारणों से। इस अंतर को समझना एवं दोनों तरह के विरोध का समाधान ज़रूरी है। उत्तर पूर्व के राज्यों में इस का विरोध इसलिए हो रहा है कि इस के चलते अवैध रूप से देश में 2014 तक दाखिल हुए लोगों को भी नागरिकता मिल जायेगी जब कि 1985 में भारत सरकार के साथ हुए आसाम समझौते के अनुसार केवल 1965 तक आसाम में आये हुए लोगों को ही नागरिकता मिलनी थी। इसलिए मोदी सरकार के पिछले कार्यकाल में प्रस्तावित नागरिकता संशोधन कानून का उत्तरपूर्व राज्यों में भयंकर विरोध हुआ था। इस सशक्त विरोध के मद्देनज़र मोदी सरकार ने पहले के अपने प्रस्तावित कानून में बदलाव कर के 2019 में पारित कानून के दायरे से उत्तरपूर्व के कुछ इलाकों को बाहर रखा है पर इस से उत्तरपूर्व के स्थानीय संगठन विशेष तौर से असामी भाषी लोग संतुष्ट नहीं हैं। वे इसे वायदा खिलाफ़ी के रूप में देखते हैं।
आसाम एवं उत्तरपूर्व के अन्य राज्यों के मूल निवासी उन्हीं कारणों से नागरिकता कानून में संशोधन का विरोध कर रहे हैं जिन कारणों से कभी महाराष्ट्र में गैर मराठी भाषियों का विरोध होता है और कभी गुजरात में। इन्हीं कारणों से हरियाणा में नौकरियों में हरियाणावासियों के लिए आरक्षण की मांग उठती है और इन्हीं कारणों से हरियाणा पंजाब से तथा तेलंगाना आंध्र प्रदेश से अलग हुआ। इसी के कारण आरक्षण के पक्ष और विरोध में आक्रामक आन्दोलन होते हैं। और वह कारण है रोज़गार के घटते अवसर। जब तक सब के लिए रोज़गार और सम्मानजनक रोज़गार सुनिश्चित नहीं होगा, तब तक यह टकराव खड़ा होता रहेगा, कभी विदेशियों के साथ और कभी अपने ही देश के नागरिकों के साथ।
जहाँ तक दूसरे देशों में प्रताड़ित अल्पसंख्यक नागरिकों को शरण देने की बात है, तो अभी भी भारत में ऐसे लोगों को शरण मिलती रही है। तिब्बती यहाँ आये हैं, अफगानी और इरानी भी आये हैं और बांग्लादेश से भागे हुए लोगों को भी शरण मिली है – तसलीमा नसरीन इसका प्रमुख (एक मात्र नहीं) उदाहरण है। शरण के लिए आये किसी भी व्यक्ति को दरवाज़े से भगाने की वकालत कोई भी सभ्य समाज नहीं कर सकता और न यह कभी भारत की रीत रही है। परन्तु न तो शरण देने के मामले में कोई भेदभाव होना चाहिए कि फलां धर्म वालों को और फलां देश से आने वालों को ही शरण मिलेगी, और न ही शरण देने का बोझ किसी एक राज्य या इलाके पर पड़ना चाहिए। बिना धर्म एवं राष्ट्र के भेदभाव के शरण लेने वालों को पूरे देश में बसाया जाय न कि केवल उत्तर पूर्व में।
शेष भारत में मोदी सरकार की इन नीतियों का विरोध दो बिलकुल अलग कारणों से हो रहा है। एक, सुप्रीम कोर्ट के मार्गदर्शन में अरबों एवं वर्षों ख़र्च होने के बाद भी नागरिकता रजिस्टर को बनाने वाली आसाम की सरकार ने ही इसे स्वीकार नहीं किया। नागरिकता रजिस्टर के चलते वहां खड़ी हुई समस्याओं के निदान के लिए ही नागरिकता कानून तक में संशोधन करना पड़ा। तो फिर, उस असफल योजना को पूरे देश में क्यों लागू किया जाए? क्यों देश के सारे 140 करोड़ लोगों को नोटबंदी की तर्ज़ पर पुन: लाईन में खड़ा किया जाए? जिस परियोजना के निदेशक को सुप्रीम कोर्ट को दखल दे कर, बचा कर, आसाम से बाहर स्थान्तरित करना पड़ा, उस परियोजना को पूरे देश में लागू करने से किस समस्या का निदान होगा? अगर देश की बाबूशाही द्वारा तैयार वोटरलिस्ट, पैन कार्ड लिस्ट, राशन कार्ड लिस्ट, बीपीएल लिस्ट, आधार इत्यादि विस्वसनीय नहीं हैं, जिसके चलते नए सिरे से नागरिकता रजिस्टर तैयार करने की ज़रुरत महसूस हो रही है, तो उसी बाबूशाही द्वारा तैयार किया गया नागरिकता रजिस्टर कैसे विस्वसनीय होगा? इस का प्रभाव मात्र इतना होगा कि पिछली जनगणना में किसी को चिंता नहीं करनी पड़ी कि उन के यहाँ जनगणना अधिकारी आया या नहीं या क्या लिख कर ले गया, पर अब की बार नागरिकों को जनगणना अधिकारियों के पीछे-पीछे घूम कर यह सुनिश्चित करना पड़ेगा कि न केवल उन का नाम दर्ज हो उस रजिस्टर में, अपितु सारे विवरण ठीक भी हों। यही नहीं, स्थानीय जनगणना रजिस्टर में उसी का नाम शामिल हो सकता है जो वहाँ कम से कम 6 महीनों से रह रहा हो। ऐसे में, किराये पर या झुग्गी झोपडी में रहने वाला कोई दिहाड़ी मज़दूर यह कैसे साबित करेगा कि वह कम से कम 6 महीने से उस स्थान पर रह रहा है!
पूरे देश के 140 करोड़ लोगों के लिए फ़िज़ूल की इस सिरदर्दी के अलावा नागरिकता रजिस्टर के विरोध का एक ओर कारण भी है। देश की गैर-मुस्लिम आबादी में से अगर कोई भागदौड़ कर के, परेशान हो कर, पैसे ख़र्च कर के भी अपनी नागरिकता साबित नहीं कर पाया, तो अंततः नागरिकता संशोधन कानून का सहारा लेकर नागरिक बन ही जायेगा। परन्तु सब से ज़्यादा परेशानी तो मुस्लिमों को होगी। भले ही नागरिकता कानून में संशोधन का ऊपरी तौर पर देश के मुस्लिम नागरिकों पर कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ेगा परन्तु पूरे देश के लिए बनाए जाने वाले नागरिकता रजिस्टर के सन्दर्भ में इसका उन पर घातक असर पड़ेगा। इस विषय पर प्रकाश डालते हुए प्रो राजेन्द्र चौधरी ने कहा कि ‘वैसे भी खुले नल को बंद किये बिना पोचा मारने का कोई फ़ायदा नहीं होगा। जब 1985 के आसाम समझौते के तहत किये गए लिखित वायदे के बावज़ूद भारत बांग्लादेश सीमा को सुरक्षित नहीं किया जा सका, तो फिर 140 करोड़ लोगों को लाईन में लगाने का क्या फ़ायदा? अवैध घुसपैठिये फिर आ जायेंगे?’ इसे स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि यह सीमा हरियाणा-पंजाब सीमा सरीखी ही है। भाजपा की वाजपेयी और मोदी सरकार भी इसे सुरक्षित नहीं बना पाई है। सप्तरंग सचिव अविनाश सैनी ने कहा कि ‘नागरिकता क़ानून में संशोधन के बड़े दूरगामी परिणाम होने वाले हैं, इसलिए लोगों तक सही जानकारी पहुंचना ज़रूरी है। इस के लिए अंगेजी में तो फिर भी पर्याप्त सामग्री मिल जाती है पर भारतीय भाषाओं में इस का आभाव है। सप्तरंग शीघ्र ही हिन्दी में ऐसे तथ्य परक सामग्री प्रकाशित करेगा। डॉ. रणबीर सिंह दाहिया, प्रो. हरीश आर्य, प्रो. सुरेन्द्र कुमार, वीरेन्द्र फोगाट, जितेंद्र सिंह, सुरेन्द्र कुमार (दिल्ली), महावीर शर्मा, दीपा कुमारी, डॉ. एसएस सांगवान, डॉ. रमणीक मोहन, तेज सिंह और जितेन्द्र हुड्डा ने भी चर्चा में भाग लिया।