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हरियाणा में किसान आंदोलन के छह माह – एक समीक्षा

Posted on June 4, 2021June 4, 2021 by अविनाश सैनी (संपादक)

।। उदय चे ।।

दिल्ली की सरहदों पर चल रहे ऐतिहासिक किसान आंदोलन को 6 महीने हो गए हैं। 26 नवम्बर को जब किसान दिल्ली की तरफ कूच कर रहे थे, तो उन्होंने कहा था कि 6 महीने का राशन साथ लेकर आए हैं। निश्चित ही इन 6 महीनों में उतार-चढ़ावों के बावजूद किसान सभी मोर्चों पर मजबूती से जमे हुए हैं। 500 के लगभग किसान आंदोलनकारियों ने इस दौरान अपनी शहादत दी है। 26 जनवरी को दिल्ली में हुई किसान परेड में लाखों लोग दिल्ली पहुंचे, जो अपने आप में बड़ा अद्भुत नजारा था।

सरकार ने अलग-अलग तरीकों से किसान आंदोलन को कुचलने के प्रयास किए, लेकिन किसान नेतृत्व (जो पंजाब के संगठित किसान संगठनों व मुल्क के वामपंथी किसान संगठनों का सांझा मंच है) ने सत्ता के सभी हमलों का जवाब मजबूती व रणनीतिक सूझबूझ से दिया है। सत्ता व कार्पोरेट मीडिया दिन-रात किसान आंदोलन के खत्म होने के दावे करता रहा, लेकिन किसान पंजाब, हिमाचल, हरियाणा, गुजरात, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार, गुजरात, तमिलनाडु, बंगाल, कर्नाटक सहित सभी राज्यों में बड़ी-बड़ी रैलियां करते रहे और आंदोलन को मजबूती देते रहे। यह किसान आंदोलन के प्रचार का असर ही था कि हरियाणा के नगर निकाय चुनाव तथा पंजाब व यूपी के पंचायत चुनावों सहित भाजपा को बंगाल विधानसभा चुनाव में भी मुंह की खानी पड़ी।

इसी बीच किसान मोर्चे ने भाजपा व उसकी सहयोगी पार्टियों के नेताओं के सार्वजनिक व निजी कार्यक्रमों के विरोध का आह्वान किया। यह विरोध पंजाब व हरियाणा में ज्यादा व्यापक रहा। पंजाब में भाजपा विधायक नारंग की पिटाई के बाद से हरियाणा में मुख्यमंत्री व उप मुख्यमंत्री समेत उनके विधायकों का तीखा विरोध हो रहा है। सत्ता में बैठे नेताओं का विरोध करना हो या किसान मोर्चे का कोई आह्वान हो, हजारों की तादाद में किसान इकट्ठा हो रहे हैं। इस 16 मई को हिसार में मुख्यमंत्री का विरोध करने पर किए गए बर्बर लाठीचार्ज व किसान नेताओं पर गंभीर धाराओं में केस दर्ज करने के बाद दर्जनों गांवों ने लॉक डाउन का विरोध करते हुए पुलिस व प्रशासन को गांवों में न घुसने देने का फरमान जारी कर दिया। 24 मई को हिसार में हजारों की तादाद में किसानों का इकठ्ठा होना और शासन-प्रशासन को खुली चेतावनी देना, इस आंदोलन में सत्ता व प्रशासन के खिलाफ उबल रहे लावे को दिखा रहा है।

इतना मजबूत होने के बावजूद आंदोलन में कुछ ऐसी खामियां हैं, जिसको चिन्हित किया जाना चाहिए। ऊपरी तौर पर देखने पर आंदोलन मजबूत व जीत की तरफ बढ़ता दिख रहा है, लेकिन जमीनी हकीकत की जांच पड़ताल करने, आपसी जातीय सामाजिक बन्धनों के आधार पर समीक्षा करने या मजदूर-किसान के मुद्दों को देखने पर आंदोलन में कई खामियां दिखाई देती हैं। इसका फायदा उठा कर सत्ता कभी भी आन्दोलन को तोड़ सकती है।

किसान आन्दोलन की खामियां

ये किसान आंदोलन तीन खेती कानूनों के खिलाफ खड़ा हुआ है, लेकिन इनसे सिर्फ किसान को ही नुकसान होगा, ऐसा नही हैं। किसान, मजदूर, रहेड़ी लगाने वाले, मंडियों में काम करने वाले मजदूर, आढ़ती आदि सब कानूनों की चपेट में आने वाले हैं।फिर आंदोलन में सिर्फ किसान ही क्यों शामिल है? किसान में भी अधिकतर जाट किसान शामिल हैं, क्यों? गैर जाट किसान जातियां, जिनमें पिछड़ी जातियों का बहुमत है और मजदूर, जिनमें दलित जातियों का बहुमत है, आंदोलन में शामिल नहीं हैं। इसकी जमीनी जांच पड़ताल करनी बहुत जरूरी है।

जाट आरक्षण आंदोलन 

हरियाणा में आरक्षण की मांग को लेकर जाटों ने बड़ा आन्दोलन किया था जो सत्ता के जाल में फंस गया। इसमें 2016 में जाट और गैर जाट के बीच जमकर हिंसा हुई थी। हिंसा के पीछे कारण जो भी रहे हों, लेकिन उस आन्दोलन के बाद जाट व गैर जाट जातियों में आपसी नफरत की जो दीवार खड़ी हुई, वह अब भी टूटी नहीं है। किसान आंदोलन ने नफरत की इस दीवार को कमजोर जरूर किया है, लेकिन दोनों तरफ से इसे गिराने के सार्थक व गंभीर प्रयास न पहले हुए थे और न ही इस ऐतिहासिक आंदोलन में हुए हैं।

सांगठनिक रणनीति का अभाव

इस आंदोलन के दौरान पूरे प्रदेढ़ में नौजवानों की बहुत बड़ी टीम निकल कर आई है, जो काफी हद तक बहुत ईमानदार है। यह टीम आन्दोलन में मेहनत कर रही है। चंदा इकठ्ठा करने, दिल्ली जाने, वहां स्थाई तम्बू लगाए रखने, आन्दोलन स्थल तक दूध, सब्जी, लस्सी पहुंचाने और किसान पंचायतों में भीड़ जुटाने में बड़ी भूमिका निभा रही है। लेकिन इसे सांगठनिक ढांचे में ढालने का कोई प्रयास अब तक किसान नेतृत्व द्वारा नहीं किया गया है। ऐसा ही महिला किसानों के साथ है। महिलाओं की आन्दोलन में मजबूत भागीदारी रही है। महिलाएं घर में चूल्हा-चौका, पशुओं व खेत का काम करके हजारों की तादाद में विरोध प्रदर्शनों में शामिल होती हैं। उन्होंने सत्ता विरोधी गीत बनाए व अलग-अलग मंचों पर उन्हें गाया। आंदोलन ने महिलाओं को किसान माना, यह इसकी बहुत बड़ी उपलब्धि है, लेकिन महिलाओं को भी कोई सांगठनिक मंच अभी तक नही मिला है।
महिलाओं को छेड़खानी व यौनिक हिंसा से बचाने के लिए भी आंदोलन कोई सार्थक पहल नही कर पाया। बंगाल की लड़की के साथ काफी अमानवीयता हुई। उसकी मौत के बाद भी किसान नेताओं की चुप्पी और आंदोलन में शामिल खाप पंचायतों द्वारा आरोपियों के पक्ष में पंचायत करना तथा इन पंचायतों के खिलाफ कोई एक्शन न लेना अमानवीयता की हद पार कर रही है। महिला किसान नेताओं व महिला संगठनों की चुप्पी भी इसमें शामिल है।

किसान नेतृत्व की पृष्ठभूमि

हरियाणा में आंदोलन की अगुवाई करने वाले अधिकतर लोग जाट आरक्षण आंदोलन के चेहरे रहे हैं। इसके कारण दूसरी जातियां आन्दोलन से दूर हैं। हरियाणा के किसान नेता होने का दावा करने वाले जो व्यक्ति आपको हर जगह स्टेज पर लच्छेदार भाषण देते मिलेंगे, वे न मजदूरों में गए, न किसानों में। वे या तो दिल्ली सरहद पर रहते हैं या किसी पंचायत या विरोध प्रदर्शन में विशिष्ठ अतिथि की तरह आते हैं। किसान पंचायतों या किसान मोर्चे के कार्यक्रमों में अधिकतर वक्ता जाट ही रहे हैं। संत रविदास जयंती हो या फिर डॉ भीम राव अम्बेडकर की जयंती या मई मजदूर दिवस हो, वक्ता सब जगह जाट जाति से ही रहे हैं। गैर जाट जातियों के नेताओं को अब तक कोई विशेष जगह इस आंदोलन में नही दी गई है।

लाल झंडे से नफरत

हरियाणा में जमीनी स्तर पर अखिल भारतीय किसान सभा, भारतीय मजदूर किसान यूनियन, किसान संघर्ष समिति, किसान सभा हरियाणा, अखिल भारतीय किसान महासभा, अखिल भारतीय खेत मजदूर यूनियन, मजदूर संघर्ष समिति के अलावा कई वामपंथी छात्र, नौजवान, महिलाओं के संगठन मजबूती से काम कर रहे हैं। इनका मजबूत सांगठनिक ढांचा, संविधान, कार्यक्रम और झंडा है।

इसके विपरीत कोई दूसरा किसान संगठन सांगठनिक तौर पर काम नहीं कर रहा है। भारतीय किसान यूनियन के नाम पर जरूर अलग-अलग गुट व्यक्तिगत नाम पर चल रहे है, लेकिन वे सिर्फ गुट ही हैं। उनका सांगठनिक स्वरूप न के बराबर है।
वामपंथी संगठन के लाल झंडे का विरोध एक खास सामंती विचारधारा के कारण किया जा रहा है। लाल झंडे के संगठन मजदूरों के अलग-अलग हिस्सों में यूनियन बना कर काम करते है। फैक्ट्रियों में ट्रेड यूनियन हैं। क्या लाल झंडे का विरोध मजदूरों का विरोध नहीं है?

कानूनों पर किसानों की समझ का अभाव

हरियाणा के किसान को यह तो साफ समझ आ गया कि इन कानूनों से मोटा-मोटी ये नुकसान होगा। लेकिन किसान नेतृत्व बारीकी से यह समझाने में विफल रहा है कि इन कानूनों से मजदूर व किसान को क्या-क्या नुकसान होगा। 6 महीने के किसान आंदोलन में साहित्य पर न्यूनतम काम हुआ है। हरियाणा में किसान आंदोलन पर 100 करोड़ से ज्यादा रुपया खर्च हो चुका है लेकिन साहित्य, पर्चों आदि पर कुछ लाख भी खर्च नही किया गया।

हमने हरियाणा के कई गांवों का दौरा किया जहां किसान आंदोलन के समर्थन में धरने चल रहे थे। इन सभी धरनों पर बैठे किसानों से बातचीत की, बातचीत का हिस्सा मजदूर भी रहा, मगर आंदोलन में मजदूर शामिल नहीं हो रहे। सभी धरनों में शामिल किसानों का एक ही कहना था कि इन कानूनों के लागू होने के बाद मजदूर को सरकारी राशन की दुकान पर मिलने वाला राशन व स्कूलों में मिड डे मील मिलना बंद हो जाएगा।

किसानों ने कहा कि जब उन्होंने इस बारे में मजदूरों से बात की तो, मजदूरों का मानना है कि ये तीनों कानून किसान के खिलाफ हैं, मजदूर को कुछ नुकसान होने वाला नहीं हैं। मजदूरों को राशन मिलना बंद नहीं होगा। अगर राशन बंद होगा, तो भी किसानों को हमारी किस लिए चिंता हो रही है, क्योंकि राशन वितरण प्रणाली के खिलाफ सबसे ज्यादा किसान ही तो बोलते थे। फ्री का खाने वाले, देश को बर्बाद करने वाले, देश पर बोझ – मजदूरों के बारे में ऐसा किसान ही तो बोलते थे। कुछ किसानों का ये भी कहना था कि ज्यादातर मजदूर दलित जातियों से हैं। उनके जातीय संगठन बने हुए हैं। जब तक उनके संगठन नहीं बोलेंगे, मजदूर आंदोलन में शामिल नहीं होंगे।

एक गांव में तो जब किसान मजदूरों से आन्दोलन में शामिल होने की अपील करने गए तो मजदूरों ने किसानों को साफ-साफ बोल दिया कि यह लड़ाई जमीन बचाने की है तो हम क्यों लड़ें? हमारे पास कौन-सी जमीन है। अगर हमको लड़ाई में शामिल करना है, तो हमें भी जमीन दो। जब पंचायत की कृषिभूमि या दुकानों का ठेका उठता है, तो उसमें 33% दलितों के लिए आरक्षित है, लेकिन कहीं भी उनको ठेका नहीं मिलता, बस उनके नाम का कागज जरूर लग जाता है। क्या किसान यह मांग करेंगे कि उनका हिस्सा उनको मिले।

इस ऐतिहासिक आन्दोलन में मजदूर 1% से ज्यादा शामिल नही हो सका है। किसान भी इस आन्दोलन में जातीय आधार पर बंटा हुआ है। बहुमत जाट जाति से सम्बंध रखने वाला किसान आन्दोलन के साथ मजबूती से खड़ा है तो इसके विपरीत गैर-जाट जातियों से सम्बन्ध रखने वाला किसान भले ही आन्दोलन के खिलाफ नहीं है, लेकिन पक्ष में भी नही है।

किसान आंदोलन के लिए जब चंदा किया गया तो गांव के मजदूरों ने भी चंदा दिया, लेकिन चंदे की कमेटी में मजदूर को शामिल नहीं किया गया। मजदूरों ने चंदा तो जरूर दिया है, लेकिन उनके अंदर सवाल यह भी उठ रहा है कि कल को जब मजदूर अपने हक के लिए आंदोलन करेगा, तो क्या किसान उस आंदोलन में चंदा देगा?

किसान आंदोलन की सबसे बड़ी कमी यह है कि वह मजदूर को किसान के झंडे के नीचे आकर आन्दोलन करने की इच्छा करता है। जबकि अगर ईमानदारी से मजदूर को इस आंदोलन में शामिल करना है तो वह अपने संगठन, झंडे और अपनी मांगों के साथ आन्दोलन में समानांतर खड़ा होगा, न कि किसान की पूंछ बनेगा। क्या आंदोलन में शामिल किसानों को यह मंजूर है?

किसान स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट लागू करने की मांग करता है। लेकिन स्वामीनाथन आयोग की उसी सिफारिश की मांग की जाती है जो किसान के फायदे की है। जैसे ही भूमिहीन खेतिहर को 1 एकड़ जमीन देने की मांग आती है, तो किसान पीछे हट जाता है। अगर मजदूर आन्दोलन में शामिल होगा, तो उसकी ये मांगें आन्दोलन में रहेंगी, जो किसानों के गले नही उतर रही। शायद इसीलिए मजदूर इस आंदोलन से दूर हैं। किसान अगर ईमानदारी से मजदूरों को आंदोलन में शामिल करना चाहता, तो उनकी बस्तियों में जाता, उनसे बात करता, उनकी मांगों को उठाने की बात करता, लेकिन ऐसा नहीं किया गया। 

मजदूरों में व्याप्त भ्रम

असल में, यह आन्दोलन मजदूर आन्दोलन होना चाहिए था, क्योंकि इन कानूनों से सबसे बड़ी मार गांव में रहने वाले खेत मजदूर पर पड़ने वाली है। कानून लागू होते ही सबसे पहले खेत में मिलने वाली मजदूरी पर संकट गहराएगा। उसके बाद महिला मजदूर का किसान के खेत से फ्री में पशुओं के लिए चारा लाना बन्द हो जाएगा। चारा बन्द होते ही मजदूर का पशुपालन चौपट होना लाजमी है।

कानून लागू होने के बाद सबसे पहले फ़ूड कार्पोरेशन ऑफ इंडिया को खत्म किया जाएगा। फ़ूड कार्पोरेशन ऑफ इंडिया खत्म होते ही सरकार सरकारी राशन की दुकान को बन्द करेगी। BPL कार्ड धारकों को राशन देने की जगह नगद पैसे दिए जाएंगे। सरकार इस स्कीम को भी गैस सिलेंडर की ऑनलाइन सब्सिडी की तरह लागू करेगी। लाभ पाने वाला परिवार पहले अपने पैसे से राशन खरीदेगा, उसके बाद उसके बैंक खाते में पैसे सरकार डालेगी। किसको कितना पैसा वापिस आएगा या गैस सिलेंडर की तरह कब धीरे-धीरे सब्सिडी खत्म कर दी जाएगी, आम आदमी समझ भी नही पाएगा। जब तक समझेगा तब तक बहुत देर हो चुकी होगी।

कुछ मजदूरों को यह भ्रम बना हुआ है कि कॉन्ट्रैक्ट खेती के बाद भी उनको मजदूरी मिलती रहेगी। लेकिन यह भी कोरा भ्रम ही है। जब बड़े-बड़े खेत बन जाएंगे, तो इनका मालिक आधुनिक व बड़ी मशीन खेती में इस्तेमाल करेगा। इससे 80% तक मजदूरी खत्म हो जाएगी। 20% मजदूरी करवाने के लिए भी खेत मालिक सस्ती मजदूरी की तलाश में बाहरी राज्यों से मजदूर लाएंगे। सरकारी मंडी में जहां हजारों मजदूर काम करते हैं, वहीं प्राइवेट मंडी में कुछेक मजदूर ही होंगे। इसके बाद नम्बर आएगा उस मजदूर का जो शहर या गांव में रहेड़ी से फल-सब्जी बेचकर गुजारा करता है। कॉन्ट्रैक्ट खेती के बाद बड़े व्यापारी (जिनके अपने शॉपिंग मॉल्स होंगे) ही खेती करेंगे और मॉल में फल व सब्जी मनमाने रेट पर बेचेंगे। सब्जी मंडी बन्द होने से रेहड़ी व छोटे दुकानदार भी बर्बाद हो जाएंगे। जमीन के मालिक किसान की कमर तो कानून लागू होने के कुछ समय बाद टूटेगी, पर मजदूर की कमर तो यह फासीवादी सत्ता उससे बहुत पहले तोड़ चुकी होगी। यानी, ये कृषि कानून मजदूर विरोधी, उसको उजाड़ने वाले, उसकी रोटी छीनने वाले, उसको बेरोजगारी की तरफ धकेल कर भूखा मरने पर मजबूर करने वाले साबित होंगे।

आंदोलन के 6 महीने बाद अब हरियाणा के किसान आन्दोलन को अपनी खामियों को दूर करने के लिए एक अभियान चलाना चाहिए। आंदोलन को संगठित कैसे किया जाए, मजदूर व महिलाओं को आन्दोलन में कैसे शामिल किया जाए व उनकी सुरक्षा को कैसे मजबूत किया जाए, इन बिंदुओं पर काम किया जाए। लाल झंडे के विरोध की बजाए फ़ासीवादी सत्ता के विरोध की तरफ ध्यान केंद्रित किया जाए। मजदूर संगठनों को भी मोर्चे में शामिल किया जाए। जो किसान जाति आंदोलन में शामिल नहीं हैं, उनसे संवाद स्थापित करना भी बेहद जरूरी है।

तीन खेती कानूनों के साथ-साथ चार श्रम कानूनों को निरस्त करवाने और भूमिहीनों को जमीन दिलवाने की जिम्मेदारी मजदूर व किसान दोनों की होगी, तो मजदूर भी आंदोलन का स्वाभाविक हिस्सा बनेंगे। मजदूरों और महिलाओं की मांगों को उठाना इस आंदोलन को जीत की तरफ बढ़ाना है।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार है और लम्बे  समय से हरियाणा में किसान आंदोलन को कवर कर रहे हैं। लेख में व्यक्त विचारों से सारी दुनिया का सहमत होना अनिवार्य नहीं है।) 

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