रोबॉटों का खेल
– ऋचा नागर
ऋचा नागर एक अर्थ में कई सरहदों के पार से ‘सारी दुनिया’ के साथ जुड़ी हैं। वे यूनिवर्सिटी ऑफ़ मिनिसोटा (संयुक्त राज्य अमेरिका) में ‘प्रोफ़ेसर ऑफ़ द कॉलेज,’ ‘बेनेट चेयर इन एक्सिलेंस’ एवं ‘फ़िंक प्रोफ़ेसर इन लिबरल आर्ट्स’ के सम्मान के साथ कार्यरत हैं। उन द्वारा अर्जित साहित्य के संस्कार दादा अमृतलाल नागर के साये में पनपे। वे सामाजिक हिंसा के विभिन्न पहलुओं पर काम कर रहे संगतिन किसान मज़दूर संगठन, सीतापुर (उ.प्र.) के सदस्यों के साथ सामूहिक चिन्तन और लेखन में भी शामिल रहती हैं और हर वर्ष कुछ माह भारत में रचनात्मक कार्यकलापों में लीन हो कर बिताती हैं।
ऋचा भारत और पड़ोसी मुल्कों, ख़ास तौर से पाकिस्तान, के बीच सौहार्द एवं मित्रता के सम्बन्धों की हिमायती हैं और इसी साल के शुरू में पाकिस्तान की यात्रा कर के आई हैं। उसी यात्रा के संस्मरण ‘सरहद पार से’ के लिए साझा कर रही हैं। उन के इन लेखों की कड़ी में यह चौथा लेख है।
जनवरी की ढलती गुलाबी धूप बड़े एहतियात से आसपास की धुँघ और गर्द अपने भीतर समेटे हुए थी। चलती हुई कार की खिड़की से निहारते हुए ऐसा लगता था मानो मकान, खेत, जानवर और इंसान सब एक सुनहरी नर्माहट में नहाये हुए हों। मिमियाती हुई ढीठ बकरियों के एक झुण्ड के पीछे दस-बारह साल के तीन बच्चे संटियाँ लिए भाग रहे थे। आगे अमरुद के ठेलों के इर्द-गिर्द कुछ औरतें जमा थीं। एक दूकान के सामने चारपाई डाले लोग दोपहर की चाय सुड़क रहे थे।
गाड़ी के भीतर मैंने ग़ौर से ताहिरा आपा के ड्राइवर हकीम साहब को देखा। वे ख़ामोशी के साथ अपने सधे हुए हाथों से स्टीयरिंग व्हील थामे हमें जल्द-से-जल्द वाहगा-अट्टारी बॉर्डर पहुँचाने की कोशिश में थे ताकि हम वहाँ आज दोपहर की परेड देख सकें। इस रोज़ होने वाली परेड के बारे में मुझे ज़रा भी इल्म नहीं था लेकिन पूरे माहौल में ऐसा सुकून और अपनापन था गोया एक-एक चीज़ पहचानी हुई हो। लगता था जैसे मैं इसी रास्ते से कई बार गुज़र चुकी हूँ।
ताहिरा आपा बता रही थीं कि उनकी अम्मीजान के बचपन की कोमल यादें हमेशा उनकी पैदाइश के शहर होशियारपुर और उसके पड़ोसी शहर गुरदासपुर से होकर गुज़रती थीं। हिंदुस्तान के बँटवारे के दौरान उनकी अम्मी रोज़ दुआ करती थीं कि गुरदासपुर पाकिस्तान में चला जाये – वे रेडियो में कान गड़ाए बैठी रहती थीं, यह जानने के लिए कि गुरदासपुर किधर गया। कभी कोई कहता था ये पाकिस्तान में जाने वाला है, तो कभी कोई बताता ये हिंदुस्तान में रहने वाला है। जब गुरदासपुर के हिंदुस्तान में जाने की ख़बर मिली तब उनकी अम्मी का दिल बैठ गया। तक़्सीम के बाद दिन में कितनी ही बार वह होशियारपुर और गुरदासपुर के मोहल्लों-टोलों को याद करतीं और अक्सर उन सिख और हिन्दू सहेलियों के क़िस्से सुनातीं जिन्होंने बड़े लाड़ से उन्हें साड़ी बांधना सिखाया था…
ताहिरा आपा की आवाज़ में डूबते-उतराते और खिड़की के बाहर के नज़ारों को सोखते हुए अचानक मंटो की कहानी ‘टोबा टेक सिंह’ मेरे अन्दर सांस लेने लगी:
“ . . . . किसी को मालूम नहीं था कि टोबा टेक सिंह पाकिस्तान में है या हिंदुस्तान में ; जो बताने की कोशिश करते वह खुद इस उलझाव में गिरफ़्तार हो जाते थे कि सियालकोट पहले हिंदुस्तान में होता था, पर अब सुना है कि पाकिस्तान में है … क्या पता है कि लाहौर जो आज पाकिस्तान में है, कल हिंदुस्तान में चला जाये … या सारा हिंदुस्तान ही पाकिस्तान बन जाये … और यह भी कौन सीने पर हाथ रखकर कह सकता है कि हिंदुस्तान और पाकिस्तान, दोनों किसी दिन सिरे से ग़ायब ही हो जाएँ …!”
और फिर –
“. . . . वह सब पागल जिनका दिमाग़ पूरी तरह माऊफ़ नहीं हुआ था, इस मख़मसे में गिरफ़्तार थे कि वह पाकिस्तान में हैं या हिंदुस्तान में ; अगर हिंदुस्तान में हैं तो पाकिस्तान कहाँ है ; अगर पाकिस्तान में हैं तो यह कैसे हो सकता है कि वह कुछ अर्से पहले यहीं रहते हुए हिंदुस्तान में थे।”
मैं अपने आप से पूछने लगी – मैं पाकिस्तान में हूँ कि हिंदुस्तान में? या फिर, क्या मैं दोनों जगह एक साथ हूँ? या हो सकता है, कहीं भी नहीं?
तभी ताहिरा आपा के अलफ़ाज़ कानों में पड़े – “हम बड़े वक़्त से पहुँच गए। परेड शुरू ही हो रही है।”
हम दोनों को परेड के नज़दीक छोड़कर हकीम साहब ने गाड़ी पार्किंग में लगाने के लिए मोड़ी। गाड़ी के दोनों दरवाज़े एक झटके के साथ बंद हुए और फ़ौजी बैंड-बाजों की धमक और सलामी देते सिपाहियों के सुर मेरे कानों और पेट में गूंजने लगे। उस फ़िज़ा में तैरती इन आवाज़ों को दिलकश तो बिल्कुल नहीं कहा जा सकता था। चन्द मिनटों पहले महसूस होने वाला सुकून उसी झटके में उड़न-छू हो गया।
परेड के बिलकुल नज़दीक अपनी जगह ली तो यकायक एहसास हुआ कि जिस ज़मीन पर मेरे पाँव धरे हैं वो है पाकिस्तान, और मेरी आँखों के ठीक सामने जो मजमा दीख रहा है, वही है हिंदुस्तान। दोनों तरफ़ सैंकड़ों जोशीले दर्शकों का हुजूम था जिसमें बच्चे-जवान-बूढ़े और मर्द-औरतें, सब शामिल थे। अलावा मेरे जैसे एकाध-दर्ज़न दूर से आये मेहमानों के, ज़्यादातर लोग आसपास के गाँवों और क़स्बों से आये मालूम होते थे – जैसे किसी त्यौहार के मेले या किसी पीर-फ़कीर के उर्स में शरीक होने आये हों। दोनों मुल्कों की सरहदों का एलान करते और मेरे दिल को बींधते हुए दो लोहे के गेट जड़े थे, और उनके बीच ‘नो मैन्स लैंड’ कहलाने वाली पट्टी थी। लेकिन उन गेटों और पट्टी से कई गुना बड़ा था वह जुनून जो दोनों तरफ़ जमा होने वाले दीवानों के इस मेले को बांधे था। इस पार और उस पार ढोल-मंजीरों के साथ पूरे ज़ोर-शोर से सिर्फ़ एक ही जश्न मन रहा था – दुश्मनी का जश्न।
झंडे हिलाते हुए इधर से लोग चिल्लाते “पाकिस्तान ज़िंदाबाद ” तो उधर से आवाज़ आती “हिंदुस्तान ज़िंदाबाद ” उधर से लोग चीख़ते “वन्दे मातरम् ” तो इधर दमदार सुर में सुनाई देता, “नारा-ए-तकबीर-अल्लाहुअकबर ”। वहां से आवाज़ बुलन्द होती, “भारत माता की जय ” तो यहाँ से गूँज उठती, “पाकिस्तान का मतलब क्या? ला इलाहा इल्लल्लाह! ”
परेड क्या थी, दो मुख़्तलिफ़ वर्दियों में सजे हू-बहू एक-सी हरकतें करते, एक-से सुर निकालते, एक-सी ही शक्लोसूरत के ताक़तवर और फुर्तीले रोबॉटों का एक अजब खेल थी – मानो दोनों तरफ़ करतब करते रोबॉट ख़ुद को ही आईने में देख रहे हों। वर्दियों पर थिरकते उनके तमग़े, ताल-से-ताल मिलाते उनके बूटों की खट-खट, तेज़ी से उठते उनके घुटने, और आसमान को छूने की ज़िद करती उनकी टांगें… एक-एक सेकंड की ऐसी ज़बरदस्त संगत कि लगता था जैसे रोबॉट बनने के लिए इंसानों ने फ़ौलाद के गेटों के आर-पार बरसों तक सांस-में-सांस पिरोकर रियाज़ किया हो…
तो क्या यह सब सिर्फ़ सिपाहियों की रोज़ी-रोटी के लिए किया जाने वाला एक ख़तरनाक खेल था? जहाँ रियाज़ के वक़्त हसीन दिल एक दूसरे के शरीर की एक-एक थिरकन से जुड़ जाते थे लेकिन ‘शो’ के वक़्त वही नज़दीकी, तमतमाहट से भरी नफ़रत के एक जश्न में तब्दील हो जाती थी?
इस रूह कंपा देने वाले खेल को देखकर न तो हँसते बनता था, न रोते।
लौटने का वक़्त हुआ तो सारे शोर-शराबे और भीड़ से अलग-थलग एक बुज़ुर्गवार खड़े थे जिनकी निगाहें लोहे के दोनों फाटकों के परे कुछ खोज रही थीं। हो सकता है यह मेरा वहम हो, लेकिन वे बूढ़ी ऑंखें मुझे निरी ख़ाली और सूखी हुई लगीं। एक पल को मुझे ताहिरा आपा की अम्मी का होशियारपुर और गुरदासपुर से बिछड़ना याद आया… ता-उम्र अपनी दुनियाओं से उजड़ने के ग़म और सरहद के उस पार की यादें संजोये अनगिनत मन, जो तमाम तबाही के बावजूद अपने वतन से कभी जुदा नहीं हुए – न इस पार, न उस पार। तो फिर, नफ़रत उकसाते और दुश्मनी का त्यौहार मनाते इन रोज़ के तमाशों की बदौलत रोबॉट बने सिपाहियों के अलावा और किस-किस के चूल्हे सुलग रहे हैं?
सवाल के साथ ही एक भूला हुआ वाक़या ज़ेहन में फ़्लैशबैक बनकर चमका।1977 की बात है… मेरी एक उस्तानी हमारे घर आईं और मुझे और मेरी बहन को एक अलग कमरे में ले जाकर बोलीं – “सुना है तुम दोनों एक दूसरे को बड़ा प्यार करती हो, लेकिन मुझे देखना है कि तुम आपस में कितना लड़ सकती हो!” उस दिन आठ साल की मैं और छ: साल की मेरी बहन जंगली बिल्लियों की तरह लड़े थे। आज तैंतालीस बरस बाद मैं साफ़ देख पा रही थी कि कैसे मेरी वह टीचर एक सियासतदाँ बनी कुर्सी पर बैठी हमारी नोच-खसोट और मार-काट का लुत्फ़ उठा रही थीं। मेरे दिल ने तिलमिलाकर पूछा – भला वह कौन-सी बीमार मानसिकता थी जिसने उनसे ऐसी नाक़ाबिले बर्दाश्त हरकत करवाई होगी? और उनके जैसे कौन से बीमार सियासतदाँ उस्ताद हैं जो रोज़ होने वाली इस नफ़रत की परेड का मज़ा लेते हैं?
अंदर और बाहर की इस सारी हलचल से अलहदा हकीम साहब अपनी नौकरी बजाते गाड़ी के साथ ठीक उसी जगह इंतज़ार कर रहे थे जहाँ उन्होंने हमें छोड़ा था। मैंने पूछा, “आपने परेड देखी?” तो उन्होंने पेशावरी लटके में जवाब दिया, “नहीं, बाजी, मैं देख चुका हूँ”, और ख़ामोश हो गए, जैसे कह रहे हों – इस पार और उस पार के तमाशों में सब ही कुछ तो दफ़न हो चुका है बाजी, जो ज़िंदा बची है वह है बस ये सियासत।
कार के दरवाज़े एक झटके के साथ बंद हुए और मुझे उस “नो मैन्स लैंड” नाम की पट्टी के दोनों तरफ़ जड़े लोहे के दरवाज़ों की सलाख़ें हिलती हुई-सी महसूस हुईं। मंटो के अलफ़ाज़ कलेजे में फिर से सिसकने लगे –
“. . . . उधर ख़ारदार तारों के पीछे हिंदुस्तान था, वैसे ही तारों के पीछे पाकिस्तान ; दरमियान में ज़मीन के उस टुकड़े पर जिसका कोई नाम नहीं था, टोबा टेक सिंह पड़ा था। ”