सुरेन्द्र पाल सिंह जी द्वारा लिखित ‘बाइटिगोंग’ किताब एक ही सांस में पढ़कर खत्म की है। एक मित्र के माध्यम से ‘बाइटिगोंग’ मिली तो पढ़ने के लोभ को रोक नहीं पाई। ‘बाइटिगोंग’ का टाइटल और कवर फोटो देखकर किसी को भी यह धोखा हो सकता है कि यह मात्र यात्रा वृतान्तों का संकलन होगा, लेकिन जैसे ही आप इसे खोलकर पढ़ना शुरू करते हैं तो आपका भ्रम तत्काल दूर हो जाता है। सुरेन्द्र पाल सिंह जी की लाजवाब लेखन शैली आपके साथ पहले आत्मिक जुड़ाव स्थापित करती है और फिर अपने साथ गहरे जल में ऐसे गोते लगवाती है कि बाहर आने पर आपको अपनी मुट्ठी मोतियों से भरी मिलती है। किताब पढ़कर ऐसा लगता है, जैसे विचारों के किसी गहन-गम्भीर-बीहड़ किन्तु रमणीय बाग से होकर गुजरी हूं।
‘बाइटिगोंग’ में विषयानुसार पांच वर्गों में 20 लेख, टिप्पणियां और रिपोर्ट शामिल हैं। ‘इतिहास के आइने से’ वर्ग में लेखक हमारा परिचय हिन्दू-मुस्लिम-सिख आवाम की साझी विरासत से करवाते हैं। गुरु गोबिंद सिंह की पहाड़ी राजाओं के विरुद्ध लड़ाई में किस प्रकार पीर बुद्धू शाह अपनी जान हथेली पर रखकर गुरु गोबिंद सिंह का साथ देते हैं, ऐसे प्रसंग हमारे ज्ञान में नया इजाफ़ा करते हैं। पता चलता है कि हमारा अतीत सद्भावना, भाईचारे और अन्याय के खिलाफ साझे संघर्ष से ओतप्रोत रहा है। ‘जहाज़ कोठी’ शीर्षक से मुगल और ब्रिटिश काल के बीच हरियाणा में रहे अराजकता के दौर को जानना एक नई समझ पैदा करता है। हम अपने निकट अतीत से ही किस कदर अनजान हैं, इस बात का भी अहसास होता है। इस अतीत पर साम्प्रदायिकता के सौदागरों ने झूठ-नफ़रत की जो परत चढ़ा दी है, उस पर मन क्षोभ से भी भर उठता है।
‘अहसास’ वर्ग के चारों लेख समाज के पोर-पोर में पैठी जाति-व्यवस्था पर सटीक टिप्पणियां हैं। जाति-व्यवस्था और राजनीति के गठजोड़ के कारण पैदा हुई विनाशलीला, अफ़वाहों का समाजशास्त्र, बेरोज़गारी, किसानी का संकट जैसे मुद्दों को बड़े ही सारगर्भित अन्दाज़ में समेटा गया है। जातिवादी संगठनों, मंचों इत्यादि की समाज विरोधी कारगुज़ारियों को देखते हुए कोई भी जागरूक नागरिक यह कहे बिना नहीं रह सकता कि न केवल इनका हर प्रकार का सरकारी अनुदान बन्द होना चाहिए, बल्कि इन पर प्रतिबन्ध भी लगना चाहिए। किन्तु वोट बैंक की जातिवादी राजनीति ऐसा होने दे तब न! जातीय या साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण और दंगों के समय किंकर्तव्यविमूढ़ होने की बजाय सही विचार के साथ जनता के बीच जाना होता है, इसी तरीके से हम न केवल वर्तमान को सुधार सकते हैं बल्कि भविष्य में होने वाली विनाशलीलाओं की सम्भावना को भी कम कर सकते हैं। जन- आयोग का गठन और इसके द्वारा शान्ति-सद्भाव हेतु मैदान में उतरना निश्चय ही काबिलेतारीफ़ कदम रहा था।
‘साक्षात्कार’ वर्ग में शहीद भगत सिंह के भानजे और विद्वान प्रो. जगमोहन सिंह और योगेन्द्र यादव के साक्षात्कार शामिल हैं। जगमोहन जी से इतिहास की कई (कम से कम मेरे लिए) अज्ञात घटनाओं का विवरण मिलता है। योगेन्द्र यादव जी के साथ हुआ साक्षात्कार किसानी के सवाल पर बहस और विमर्श के कई नुक्ते प्रस्तुत करता है और यह काफी विचारोत्तेजक बातचीत है।
‘पुस्तक समीक्षा’ के अन्तर्गत की गई समीक्षाएं भी आदर्श नमूना हैं। लेखक हमारे सामने, सुधीर कक्कड़ की पुस्तक की समीक्षा के माध्यम से मनोरोगों के रहस्यों और इनकी देसी चिकित्सा के पीछे के मनोविज्ञान को उद्घाटित करते हैं। डी. आर. चौधरी द्वारा ‘खाप पंचायतों की प्रासंगिकता’ पर लिखित पुस्तक चूंकि मैं पहले ही पढ़ चुकी हूँ, फिर भी कहना चाहूंगी कि सुरेन्द्र जी द्वारा प्रस्तुत समीक्षा ने पुस्तक के विषय में मेरे अनुभव को पुनः ताज़ा कर दिया है। “सम्मान” के नाम पर मध्युगीन “न्याय” निश्चय ही निन्दनीय है। मैं बस इतना जोड़ना चाहूंगी कि खाप पंचायतें जातिव्यवस्था की ही एक ठोस और मजबूत अभिव्यक्ति हैं तथा सत्तापक्ष प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से इन्हें भी प्रश्रय ही देता है। लैंगिक और जातीय गैरबराबरी को बढ़ावा देने वाली संस्थाओं के साथ ही तमाम जातीय संगठनों की तरह खाप पंचायतें भी अन्ततोगत्वा राजनीति को निर्देशित करने के लिए सम्बन्धित जातियों के साधनसम्पन्न लोगों के हाथों में अभिव्यक्ति का एक औज़ार ही हैं।
‘सफ़रनामा’ भाग में कनाडा और ऑस्ट्रेलिया के विभिन्न स्थानों का विवरण मिलता है। लेखक इन जगहों की न केवल भौगोलिक विशेषताओं का वर्णन करते हैं, बल्कि इन जगहों के इतिहास, जातीय सम्बन्धों और समाजशास्त्रीय पहलुओं को भी विशेष स्थान देते हैं। मोरनी हिल्ज़ में भी यही झलक मिलती है और दूसरे धरातल पर बाइटिगोंग में भी यही झलक दिखती है। यह सही भी है क्योंकि किसी स्थान विशेष का बेहतरीन से बेहतरीन यात्रा वृतान्त भी वहां के बाशिन्दों और उनके व स्थान विशेष के ऐतिहासिक सम्बन्धों की जानकारी के बगैर अधूरा ही रहता है।
इस भागदौड़ भरी ज़िन्दगी और सोशल मीडिया की अनुत्पादक व्यस्तता के बीच ‘बाइटिगोंग’ को पढ़ना मेरे लिए काफ़ी शिक्षाप्रद और रोचक अनुभव रहा। सुरेन्द्र पाल सिंह जी के व्यक्तित्व से भी उनकी लेखनी के माध्यम से साक्षात्कार हुआ। मुझे लगता है आप तबियत से एक शोधार्थी, घुम्मकड़ और जनता के बीच रहने वाले व्यक्ति हैं और आपको पढ़कर ताज्जुब भी हुआ कि बैंक की उबाऊ-थकाऊ नौकरी के बावजूद भी आपने अपने व्यक्तित्व की इन ज़रूरी विशेषताओं को बचाए रखा।
अंत में, मैं इस बात की ज़ोरदार सिफारिश करना चाहूंगी कि मौका मिले तो इस पुस्तक को ज़रूर पढ़ें। ‘बाइटिगोंग’ जैसे अटपटे शीर्षक वाली इस पुस्तक को पढ़कर आपको निश्चित रूप से जीवन के कुछ भिन्न और अनछुए पहलुओं को जानने, समझने का विशेष लाभ मिलेगा।