प्रदेश विधानसभा ने ग्राम पंचायतों के लिए ‘राइट टू रीकॉल’ बिल पास कर दिया है। इस बिल के लागू होने से काम न करने वाले सरपंच को कार्यकाल पूरा होने से पहले ही हटाने का अधिकार ग्रामीणों को मिल गया है।
उपमुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला ने बिल के बारे में बताते हुए कहा कि, सरपंच को हटाने के लिए गांव के 33 प्रतिशत मतदाताओं को अविश्वास संबंधी लिखित शिकायत सक्षम अधिकारी को देनी होगी। यह प्रस्ताव खंड विकास एवं पंचायत अधिकारी तथा सीईओ के पास जाएगा। इसके बाद ग्राम सभा की बैठक बुलाकर 2 घंटे के लिए चर्चा करवाई जाएगी।
इस बैठक के तुरंत बाद गुप्त मतदान करवाया जाएगा और अगर 67 प्रतिशत ग्रामीणों ने सरपंच के खिलाफ मतदान किया तो सरपंच पदमुक्त हो जाएगा। उन्होंने कहा कि इस नियम के तहत सरपंच चुने जाने के एक साल बाद ही अविश्वास प्रस्ताव लाया जा सकेगा। अगर अविश्वास प्रस्ताव के दौरान सरपंच के विरोध में निर्धारित दो तिहाई मत नहीं पड़ते हैं तो आने वाले एक साल तक दोबारा अविश्वास प्रस्ताव नहीं लाया जा सकेगा। इस तरह ‘राइट टू रीकॉल’ का प्रयोग एक साल में सिर्फ एक बार ही किया जा सकेगा।
अभी इन राज्यों में है राइट टू रिकॉल कानून
- उत्तर प्रदेश
- उत्तराखंड
- बिहार
- झारखंड
- मध्य प्रदेश
- छत्तीसगढ़
- महाराष्ट्र
- हिमाचल प्रदेश
कांग्रेस ने किया विरोध
कांग्रेस ने विधानसभा में और विधानसभा के बाहर भी इस संशोधन विधेयक का विरोध किया। विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष भूपेन्द्र सिंह हुड्डा ने कहा कि इससे लोगों का आपसी वैमनस्य बढ़ेगा और गांव का भाईचारा खराब होगा। हुड्डा ने कहा कि यदि सरकार सच में जनता को नाकारा प्रतिनिधियों को वापिस बुलाने का अधिकार देना चाहती है तो इसकी शुरुआत सरपंचों से नहीं, विधायकों से करनी चाहिए। उन्होंने कहा कि अगर ऐसा होता है तो जनता सारे बीजेपी विधायकों को घर बैठा देगी।
राइट टू रिकॉल की प्रक्रिया
सरपंच को जनता द्वारा वापस बुलाने की प्रक्रिया 2 चरणों की है, जिसको नागरिक स्वयं शुरू कर सकते हैं। राज्य अनुसार एक या दो वर्ष की सुरक्षित (लॉक-इन) अवधि के बाद, ग्राम सभा के सदस्यों (निर्धारित संख्या में) को अपने हस्ताक्षर करके अथवा अंगूठे लगाकर याचिका के रूप में जिला कलेक्टर के दफ्तर में देना होता है । हस्ताक्षरों की जांच के बाद, ग्राम सभा के सदस्यों की बैठक का आयोजन किया जाता है और यदि उस बैठक में बहुमत ग्राम सभा के सदस्य, अपने सरपंच को हटाने के लिए मांग करते हैं, तो उस सरपंच को हटा दिया जाता है।
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में राइट टू रिकॉल
निर्वाचित प्रतिनिधियों को वापस बुलाने के अधिकार का इतिहास काफी पुराना है। प्राचीन काल में एंथेनियन लोकतंत्र से ही यह कानून चलन में था। बाद में कई देशों ने इस कानून को अपने संविधान में शामिल किया। यह भी कहा जाता है कि इस कानून की उत्पत्ति स्विटजरलैंड में हुई थी, पर यह अमेरिकी राज्यों में चलन में आया। 1903 में अमेरिका के लॉस एंजिल्स की नगर पालिका (म्यूनिसपैलिटी), 1908 में मिशिगन और ओरेगान में पहली बार ‘राइट टू रिकॉल’ को लागू किया गया।
आधुनिक भारत में, सचिंद्रनाथ सान्याल ने सबसे पहले जनसेवकों को वापिस बुलाने के अधिकार की मांग की थी। सचिंद्रनाथ सान्याल ने दिसम्बर 1924 में ‘हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ के घोषणा पत्र में लिखा कि “इस गणराज्य में, मतदाताओं के पास अपने जनसेवकों के ऊपर राईट टू रिकॉल (वापिस बुलाने का अधिकार) होगा, नहीं तो लोकतंत्र एक मजाक बन जायेगा।”
चुने हुए जनप्रतिनिधियों को वापिस बुलाने को लेकर भारतीय लोकतंत्र में काफी लंबी बहस रही है। इस मुद्दे पर संविधानसभा में भी बहस हुई थी। यह बहस इस धारणा पर केंद्रित थी कि मतदाताओं के पास चुनाव का अधिकार होने के साथ-साथ हटाने (राईट टू रिकॉल) का अधिकार भी होना चाहिए। यदि कोई गलत व्यक्ति चुना जाए, तो मतदाताओं के पास कोई उपाय होना चाहिए, लेकिन संविधान सभा ने संविधान के इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया।
18 जुलाई 1947 को जनसेवकों को हटाने के अधिकार (रिकॉल) के प्रस्तावित संशोधन पर चर्चा करते हुए सरदार वल्लभ भाई पटेल ने कहा था – “यदि कुछ बिरले लोग या कुछ काली भेड़े हैं जिन्होंने अपने चुनाव क्षेत्र का विश्वास खो दिया है और फिर भी संसद में उस चुनाव क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करना चाहते हैं, तो उन कुछ बुरे लोगों के लिए हमें अपने चुनाव क्षेत्र की व्यवस्था को बिगाड़ना नहीं चाहिए। हमें उसे वर्तमान अवस्था में ही रहने देना चाहिए।”
भारत में सबसे पहला “राइट टू रिकॉल” कानून उत्तर प्रदेश में सरपंचों पर ग्राम सभा के सदस्यों द्वारा अविश्वास प्रस्ताव के रूप में लागू किया गया।