आरसीईपी को लेकर देशभर में हुए जबर्दस्त विरोध को देखते हुए अंततः भारत सरकार ने इस समझौते में शामिल न होने का फैसला किया है। 4 नवंबर को क्षेत्रीय व्यापार आर्थिक भागीदारी (आरसीईपी) मुक्त व्यापार समझौते पर सदस्य देशों को बैंकॉक में चल रही बैठक में फैसला करना था। बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी शामिल थे जिससे यह लग रहा था कि 7 वर्षों से जारी वार्ता किसी नतीजे पर पहुंचेगी और इस समझौते पर कोई सहमति बन जाएगी। इधर,250 से अधिक किसान संगठनों के साझा मंच अखिल भारतीय किसान संघर्ष समिति के बैनर तले देश भर के किसान, श्रमिक, पशुपालक, छोटे व्यापारी, बुद्धिजीवी व कई राजनीतिक दल लगातार इस समझौते का विरोध कर रहे थे। फैसले के दिन भी उन्होंने 500 जिला मुख्यालयों पर धरने-प्रदर्शन और जलसे-जुलूसों का आयोजन करते हुए आरसीईपी के पुतले जलाए थे।
अन्ततः लोगों का विरोध काम आया और 4 नवंबर को बैंकॉक में रीजनल कंप्रिहेंसिव इकोनामिक पार्टनरशिप (आरसीईपी) समिट को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि ‘वे भारत की चिंताओं के प्रति दृढ़ हैं और घरेलू उद्योगों के हित को लेकर कोई समझौता नहीं कर सकते। उन्होंने कहा कि आरसीईपी की कल्पना करने से हजारों साल पहले भारतीय व्यापारियों, उद्यमियों और आम लोगों ने इस क्षेत्र के साथ संपर्क स्थापित किया था। सदियों से इन संपर्कों और संबंधों ने हमारी साझा समृद्धि में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
उन्होंने कहा कि हमारे किसानों, व्यापारियों और उद्योगों का काफी कुछ दांव पर है। कर्मचारी और उपभोक्ता हमारे लिए समान रूप से महत्वपूर्ण हैं। पीएम ने कहा कि आज जब हम आरसीईपी के 7 वर्षों के वार्ता को देखते हैं तो वैश्विक आर्थिक और व्यापार परिदृश्य सहित कई चीजें बदल गई हैं। हम इन परिवर्तनों को नजरअंदाज नहीं कर सकते। मौजूदा आरसीईपी समझौता आरसीईपी की मूल भावना को पूरी तरह से प्रतिबिंबित नहीं करता है।’
क्या है आरसीईपी ?
दरअसल आरसीईपी एक ट्रेड एग्रीमेंट है जो सदस्य देशों को एक दूसरे के साथ व्यापार में कई तरह की छूट देगा। इसके तहत निर्यात पर लगने वाला टैक्स खत्म करना पड़ता या बहुत कम कर देना पड़ता। इस समझौते पर लंबे समय से हो रही बातचीत में आसियान के 10 देशों के साथ अन्य 6 देश भी शामिल हैं।
किसान कर रहे थे विरोध
आरसीईपी में भारत के शामिल होने के खिलाफ किसान देशभर में विरोध प्रदर्शन कर रहे थे। किसानों का कहना है कि यदि यह संधि होती तो देश के एक तिहाई बाजार पर न्यूजीलैंड, अमेरिका और यूरोपीय देशों का कब्जा हो जाता और भारतीय किसानों के उत्पाद के मूल्य में काफी गिरावट आ जाती। समिति का कहना है कि भारत पर विशेष रुप से अमेरिका का दबाव है कि वह सस्ता अनाज, दाल और दूध आदि आयात करे। आरसीईपी से भारतीय बाजारों में दूध, दूध से निर्मित उत्पादों, कपास, गेहूं, मसालों नारियल और रबड़ आदि की बाढ़ आ जाती तथा लगभग 10 करोड़ परिवारों की आजीविका प्रभावित होती।
डेयरी उद्योग पर पड़ता सर्वाधिक असर
अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति का कहना है कि अगर भारत आरसीईपी की संधि में शामिल होता, तो देश के कृषि क्षेत्र पर बहुत बुरा असर पड़ेगा। इससे भारत का डेयरी उद्योग तो पूरी तरह से बर्बाद हो जाता।
गौरतलब है कि वर्तमान में दूध उत्पादन छोटे किसानों की आमदनी का एकमात्र साधन बचा हुआ है। ऐसे में अगर सरकार आरसीईपी समझौता करती तो डेयरी उद्योग पूरी तरह से तबाह हो जाता और 80 फीसदी किसान बेरोजगार हो जाते। किसानों के अलावा राजनीतिक दल और अर्थशास्त्री भी इस समझौते का विरोध कर रहे थे। कांग्रेस ने विशेष रूप से इसको लेकर काफी आक्रामक रुख अपनाया हुआ था।
चौतरफा विरोध को देखते हुए भारत सरकार ने भी निष्पक्ष और पारदर्शी करार में ही शामिल होने की बात कही थी। बैंकॉक में चल रहे आसियान शिखर सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी ओपनिंग स्पीच में भी आरसीईपी का जिक्र नहीं किया था। उन्होंने केवल मौजूदा दौर में व्यापार समझौतों में सुधार की बात की थी।
चीनी सामान की आ जाती बाढ़
जानकार कहते हैं कि आरसीईपी समझौता होने से भारतीय बाजार में चीनी सामान की बाढ़ आ जाती। चीन का अमेरिका के साथ ट्रेड वॉर चल रहा है जिससे उसे नुकसान उठाना पड़ रहा है। चीन अमेरिका से ट्रेड वॉर में हो रहे नुकसान की भरपाई भारत व अन्य देशों के बाजार में अपना सामान बेचकर करना चाहता है। ऐसे में आरसीईपी समझौते को लेकर चीन सबसे ज्यादा उतावला दिखाई दे रहा है।
समिति ने कहा है कि अभी भी आरसीईपी का खतरा टला नहीं है क्योंकि कहा जा रहा है कि यह फरवरी 2020 में सम्पन्न होगा।