प्रदेश में विधानसभा चुनाव संपन्न हो गए। भाजपा को 40, कांग्रेस को 31, जजपा को 10 तथा इनेलो और हरियाणा लोकहित पार्टी को एक-एक सीट मिली। 7 सीटों पर निर्दलीयों ने बाजी मारी। 75 पार का नारा देने वाली भाजपा पूर्ण बहुमत से भी 6 सीट कम पर सिमट गई। पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष सुभाष बराला और रामबिलास शर्मा, कैप्टन अभिमन्यु, ओपी धनखड़, कविता जैन, कृष्ण बेदी, मनीष ग्रोवर और कृष्ण लाल पंवार सहित सात कद्दावर मंत्री चुनाव हार गए। केवल दो मंत्री, अनिल विज और डॉक्टर बनवारीलाल ही अपनी सीट बचा पाए। पार्टी को जजपा और निर्दलीयों की बैशाखियों पर सरकार बनानी पड़ी। खुद मुख्यमंत्री के वोट प्रतिशत में काफी कमी आई। इसके विपरीत संगठन विहीन और अंतरकलह में डूबी कांग्रेस तथा नई बनी जजपा ने भाजपा को कड़ी टक्कर दी। हुड्डा और शैलजा की अगुवाई में कांग्रेस तो नि:संदेह एक बार फिर से ताकतवर बनकर उभरी है। यह बात अलग है कि वह सत्ता की दहलीज तक नहीं पहुंच पाई। जजपा भी बेहतर प्रदर्शन करने में कामयाब रही।
चुनाव परिणामों पर काफी चर्चा हो चुकी है। परंतु मुख्य सवाल यह है कि इसी साल भारी बहुमत से दस की दस लोकसभा सीट जीतने वाली भाजपा आखिर इतनी बुरी स्थिति तक कैसे पहुंची। ईमानदार सरकार, पूरे प्रदेश में समान विकास, भ्रष्टाचार मुक्त पारदर्शी शासन तथा बिना खर्ची-बिना पर्ची नौकरियां देने के नारों और दावों के बावजूद प्रदेश की जनता ने ऐसा जनादेश क्यों दिया?
यहां एक बात तो यह कही जा सकती है कि जनता ने खट्टर सरकार के खिलाफ वोट दिया है। सरकार के कद्दावर मंत्रियों की हार इसका स्पष्ट प्रमाण है। लोगों को भाजपा के खिलाफ जो प्रत्याशी मजबूत दिखाई दिया, उसे वोट दे दिया। फिर भले ही वह कांग्रेसी था, जजपा से था या निर्दलीय था। मंत्रियों का तथाकथित भ्रष्टाचार, जनता और कार्यकर्ताओं से दूरी, अहंकारी व्यवहार, विरोधियों के खिलाफ बदले की कार्रवाई और सत्ता का दुरुपयोग उनके लिए काफी नुकसानदायक साबित हुआ। मुख्यमंत्री के फरसे वाले प्रकरण और फरियादियों व पत्रकारों को हडकाने वाली वीडियो ने उनकी स्वयं की छवि भी एक अहंकारी नेता की बना दी। इसका भी विपरीत असर पड़ा।
असल में 2014 में पूर्ण बहुमत से सत्ता में आने के बावजूद भाजपा मजबूत जन हितैषी सरकार देने में विफल रही। इसके विपरीत सरकार की छवि एक ऐसी अड़ियल सरकार की बनी, जिसका उद्देश्य किसी भी तरह अपनी नीतियों को लागू करना और अपने लोगों के हितों को साधना हो। बलपूर्वक रोडवेज के निजीकरण की कोशिशें, उसमें मंत्रियों का भ्रष्टाचार उजागर होने, कर्मचारी आंदोलन को कुचलने के तौर तरीके, अनेक सरकारी स्कूलों को बंद करने और बहुतों में विज्ञान की पढ़ाई खत्म करने, कर्मचारियों का एचआरए रोकने, उनका वर्कलोड बढ़ाने, आंगनवाड़ी और आशा कार्यकर्ताओं के साथ हुए फैसलों को लागू न करने तथा छात्र आंदोलनों को दबाने सहित सरकार की अनेक कारगुजारियां भाजपा के खिलाफ गईं। किसानों की बदहाली भी सरकार के खिलाफ नाराजगी का बड़ा कारण रही है। फसलों की खरीद न होने, पूरे दाम न मिलने, यूरिया की कीमतें बढ़ने, जबरदस्ती फसल बीमा करने और पूरा मुआवजा न मिलने से किसानों में जबरदस्त आक्रोश था जिसने भाजपा के मजबूत गढ़, जीटी रोड बैल्ट में भी पार्टी को बड़ा झटका दिया और विभिन्न सीटों पर कांग्रेस व जजपा प्रत्याशियों को जीतने में मदद की।
इसके अलावा शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी विभागों के भगवाकरण की कोशिशों ने की भाजपा के खिलाफ माहौल तैयार किया। सरकार की नीतियों से असहज महसूस कर रहे कर्मचारियों और शिक्षित मध्यवर्ग का एक हिस्सा इस कारण भी भाजपा से छिटका। क्लर्क भर्ती में युवाओं की दुर्गति और और बिजली विभाग में एसडीओ के पदों पर बाहरी उम्मीदवारों का सिलेक्शन, बिना पर्ची-बिना खर्ची नौकरी देने के दावों पर भारी पड़ गया। विपक्ष के इस प्रचार से कि बेरोजगारी और मंदी का मुख्य कारण जीएसटी व नोटबंदी है, युवाओं और छोटे कारोबारियों का एक वर्ग भाजपा से विमुख हो गया। सीटों के गलत बंटवारे का भी असर पड़ा और प्रत्याशियों के रसूख तथा स्थानीय मुद्दों ने भी मतदाताओं को प्रभावित किया। भाजपा के कई नेता निर्दलीय या जेजेपी से जीत कर आए क्योंकि लोगों को लगा कि पार्टी ने उनके साथ अन्याय किया है।
ये वे मोटे-मोटे कारण हैं जिन्होंने सरकार के खिलाफ जनमत तैयार करने का काम किया। अब यह भी कहा जा सकता है यदि सरकार की ऐसी स्थिति थी तो भाजपा को 40 सीट कैसे मिली! उसके पीछे एक बड़ा कारण यह हो सकता है कि तमाम नकारात्मक बातों के, प्रदेश का एक बड़ा हिस्सा अभी भी गैरजाट मुख्यमंत्री चाहता है और उन्हें लगा कि भाजपा ही ऐसा कर सकती है। यानी, भाजपा की जीत में जाट-गैर जाट फैक्टर ने बड़ी भूमिका अदा की है। लोकसभा चुनाव में पार्टी को मिले भारी बहुमत, आत्मविश्वास से भरे 75 पार के नारे और मीडिया द्वारा ओपिनियन पोल में भाजपा की लहर दिखाने का असर भी पड़ा है। बहुत सारे लोगों ने तो इसीलिए भाजपा को वोट दे दिया कि कुछ भी हो, सरकार तो बीजेपी की ही बनेगी। दूसरी बात यह कि लोगों को भरोसा नहीं था कि कांग्रेस इतना अच्छा प्रदर्शन करेगी। इस बात का अंदाजा तो खुद कांग्रेसी नेताओं को भी नहीं था। अगर कांग्रेस और मजबूती से चुनाव लड़ती तथा गुटबंदी के चलते सीटों के बंटवारे में गलती न करती तो नि:संदेह परिणाम चौंकाने वाले होते। कुल मिलाकर कांग्रेस के कमजोर देखने का फायदा भी भाजपा को मिला है।
बहरहाल भाजपा दोबारा सरकार बनाने में सफल रही है और मनोहर लाल खट्टर पुनः मुख्यमंत्री बन गए हैं। ऐसे में उन्हें पुरानी गलतियों से सीख लेकर आगे बढ़ने की जरूरत है। उन्हें समझना होगा कि हरियाणा की जनता ऐसे मजबूत मुख्यमंत्री को पसंद करती है, जो लोगों के बीच रहे, उनके साथ बैठकर उनके मन की सुने और व्यापक जनहित के लिए मजबूत फैसले ले। खुद के ईमानदार होने से काम नहीं चलता, लोग एक ईमानदार सरकार चाहते हैं। साथ ही वे सरकार के दबाव (प्रेशर) और अवांक्षित हस्तक्षेप को भी सहन नहीं करते। मरोड़ निकालनी उन्हें खूब आती है, यह तो देख ही लिया होगा!