।। अशोक पांडे ।।
हरियाणा में रोहतक के केवल गंज के एक मध्यवर्गीय परिवार में जन्मी दसेक साल की उस दुबली मुस्लिम लड़की की एक सबसे पक्की हिन्दू सहेली थी। सहेली और उसकी बहन अपने संगीतप्रेमी पिता के निर्देशन में क्लासिकल गाना सीख रही थीं। एक दिन उस लड़की ने उनके सामने ऐसे ही कुछ गा दिया। शाम को सहेली के पिता उसे घर छोड़ने गए और उसके पिता से बोले – “मेरी बेटियां अच्छा गा लेती हैं पर आपकी बेटी को तो ईश्वर से गायन का आशीर्वाद मिला हुआ है। संगीत की तालीम दी जाए तो वह बहुत नाम कमाएगी।”
यूँ 1945 के आसपास उस लड़की के लिए दिल्ली घराने के एक बड़े उस्ताद की शागिर्दी में गाना सीखने की राह खुली। उस्ताद की संगत में जल्द ही उसने दादरा और ठुमरी जैसी शास्त्रीय विधाओं में प्रवीणता हासिल कर ली। पार्टीशन के 4-5 साल तक वह दिल्ली में गाना सीखती रही। 17 की हुईं तो उम्र में उनसे काफी बड़े एक पाकिस्तानी जमींदार को उनसे इश्क हो गया। जल्द ही इस शर्त पर दोनों का निकाह हो गया कि शादी के बाद भी उस की संगीत यात्रा पर कोई रोक नहीं लगाई जाएगी। पति ने अपना वादा अपनी मौत, यानी 1980 तक निभाया।
यूँ हमें इक़बाल बानो नसीब हुईं। “हम देखेंगे” वाली इक़बाल बानो!
इक़बाल बानो की गायकी का सफ़र उनकी जिन्दगी जैसा ही हैरतअंगेज रहा। कौन सोच सकता था कि दादरा और ठुमरी जैसी कोमल चीजें गाते-गाते वह दुबली लड़की उर्दू-फारसी की गजलें गाने लगेगी और भारत-पाकिस्तान से आगे ईरान-अफगानिस्तान तक अपनी आवाज का झंडा गाड़ देगी। उसकी आवाज में एक ठहराव था और गायकी में शास्त्रीयता को बरतने की तमीज।
फिर 1977 का साल उसके मुल्क में अपने साथ जिया उल हक जैसा क्रूर तानाशाह लेकर आया। धार्मिक कट्टरता के पक्षधर इस निरंकुश फ़ौजी शासक ने तय करना शुरू किया कि क्या रहेगा और क्या नहीं। इस क्रम में सबसे पहले उसने अपने विरोधियों को कुचलना शुरू किया। उसके बाद डेमोक्रेसी और स्त्रियों की बारी आई। जिया उल हक ने यह तक तय कर दिया कि औरतें क्या पहन सकती हैं और क्या नहीं। पाकिस्तान की औरतों के साड़ी पहनने पर इसलिए पाबंदी लग गई कि वह हिन्दू औरतों का पहनावा थी।
कला-संगीत-कविता जैसी चीजों को गहरा दचका भी इस दौर में लगा। फैज़ अहमद फैज को मुल्कबदर कर दिया गया। हबीब जालिब को जेल भेज दिया गया। उस्ताद मेहदी हसन का एक अल्बम बैन हुआ। शायरों-कलाकारों को सार्वजनिक रूप से कोड़े लगे। करीब बारह साल के उस दौर की पाशविकताओं और अत्याचारों की फेहरिस्त बहुत लम्बी है।
ऐसे माहौल में इक़बाल बानो ने विद्रोह और इन्कलाब के शायर फैज़ को गाना शुरू किया। सन 1981 में जब उन्होंने पहली बार फैज़ को गाया, निर्वासित फैज़ बेरूत में रह रहे थे और उनकी शायरी प्रतिबंधित थी।
उसके बाद ज़माने ने इक़बाल बानो का जो रूप देखा उसकी कल्पना खुद उन्हें भी नहीं रही होगी। बीस साल पहले उनकी आवाज़ कोमल, तीखी और सुन्दर हुआ करती थी – अनुभव और संघर्ष के ताप ने अब उसे किसी पुराने दरख्त के तने जैसा मजबूत, दरदरा और पायेदार बना दिया था। अचानक सारा मुल्क पिछले ही साल विधवा हुई इस प्रौढ़ औरत की तरफ उम्मीद से देखने लगा था।
गुप्त महफ़िलें जमाई जातीं। प्रतिबंधित कविताएं गाई जातीं। स्कूल-युनिवर्सिटियों में पर्चे बांटे जाते। इक़बाल बानो हर जगह होतीं।
फिर 1986 की 13 फरवरी को लाहौर के अलहमरा आर्ट्स काउंसिल के ऑडीटोरियम में वह तारीखी महफ़िल सजी। पूरा हॉल भर चुकने के बाद भी हॉल के बाहर भीड़ बढ़ती जा रही थी। आयोजकों ने जोखिम उठाते हुए गेट खोल दिए। सीढियों पर, फर्श पर, गलियारों में – जिसे जहाँ जगह मिली वहीं बैठ गया। कुछ हजार सुनने वालों के सामने इक़बाल बानो ने फैज़ अहमद फैज़ को गाना शुरू किया :
“हम देखेंगे, लाजिम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिसका वादा है, जो लौह-ए-अज़ल में लिक्खा है
हम देखेंगे”
इस नज्म के शुरू होते ही समूचे हॉल में बिजली दौड़ने लगी। सुनने वालों के रोंगटे खड़े होना शुरू हुए। दर्द के नश्तरों से बिंधी, इक़बाल बानो की पकी हुई आवाज़ के तिलिस्म ने धीरे-धीरे हर किसी को अपने आगोश में लेना शुरू किया। अजब दीवानगी का आलम तारीं होने लगा। लोगों ने बाकायदा लयबद्ध तालियों से इक़बाल बानो का साथ देना शुरू किया।
फिर नज्म का वह हिस्सा आया :
“जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गरां रुई की तरह उड़ जाएँगे
हम महकूमों के पाँव तले ये धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हकम के सर ऊपर जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी
जब अर्ज-ए-ख़ुदा के काबे से सब बुत उठवाए जाएँगे
हम अहल-ए-सफ़ा, मरदूद-ए-हरम मसनद पे बिठाए जाएँगे
सब ताज उछाले जाएँगे
सब तख़्त गिराए जाएँगे”
भीड़ बेकाबू होकर तालियाँ बजाने लगी। इन्कलाब ज़िदाबाद के नारे लगाने शुरू हो गए। इस शोरोगुल के थमने तक इक़बाल बानो को गाना बंद करना पड़ा। उन्होंने फिर गाना शुरू किया। लोग बेकाबू होकर रोने लगे।
कई बरसों की रुलाई दबाए बैठा एक मुल्क सांस लेना शुरू कर रहा था।
उस रात अलहमरा आर्ट्स काउंसिल के आयोजकों-मैनेजरों के घर छापे पड़े। पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर प्रोग्राम की सारी रेकॉर्डिंग्स जब्त कर जला दीं। किसी तरह एक प्रति स्मगल होकर दुबई पहुँच गई। उसके बाद फैज़-इक़बाल बानो की उस जुगलबंदी का नया इतिहास लिखा जाना शुरू हुआ। दुनिया भर के युवा आज भी उसे लिख रहे हैं।
दो बरस बाद जिया उल हक के अपने ही सलाहकार-साथियों ने उस जहाज में आमों की एक पेटी के भीतर बम छिपा दिए, जिस पर उसे यात्रा करनी थी। ये बम बीच आसमान में फटे। तब से बीते इतने बरसों में जनरल जिया की हेकड़ी का भूसा भर चुका है।
इक़बाल बानो आज तक महक रही हैं। पता है 13 फरवरी 1986 की उस रात की कंसर्ट में इक़बाल बानो क्या पहन कर गई थीं?
काले रंग की साड़ी!