– लोकगीतों में मिलती है उसके सच्चे प्रेम की झलक
– इंद्री के पास स्थिति एक ऐतिहासिक महल को निहालदे का महल माना जाता है
– पश्चिम यूपी के कासना में है सती निहालदे का मंदिर
– हरियाणा में निहालदे के नाम से लोक गायन शैली भी है।
मायड़ बरजै कंवर निहालदे जी,
ए बेट्टी बाग झूलण मत जाए, बागां म्हैं कहिए बेटा साहूकार का जी।
थारी तो बरजी मां मेरी ना रहूं जी,
ए जी कोए बाग झूलण इब जाएं, के ए करेगा बेटा साहूकार का जी।
सावन का महीना लगते ही हरियाणा के ग्रामीण अंचल में जगह-जगह यह गीत सुनाई देने लगता है। अब तो भले ही यह बहुत कम गाया जाता हो, लेकिन कुछ समय पहले तक लगभग हर औरत को यह गीत कंठस्थ होता था। बरसात की रिमझिम फुहारों के बीच झूला झूलती नवयौवनाएं जब यह गीत गाती थीं, तो जैसे निहालदे के प्रसंगवश अपनी ही भावनाओं को अभिव्यक्त कर रही होती थीं। कंवर निहालदे हरियाणा की लोक नायिका रही है और उसकी प्रेम कथा इस क्षेत्र में काफी प्रसिद्ध हुई है। निहालदे और नर सुल्तान की प्रेम कहानी जनमानस में इतनी लोकप्रिय रही है कि उनके मिलन और विरह प्रसंगों पर महिलाओं ने अनेक लोकगीतों का निर्माण कर लिया। इन मल्हार गीतों को अभी तक यहां की महिलाएं और युवतियां सावन के महीने में गाती रही हैं।
“निहालदे” का सावन के महीने से घनिष्ठ संबंध रहा है। इसलिए कंवर निहालदे को सावन की नायिका भी कहा जाता है। कहते हैं कि केलागढ़ की राजकुमारी “निहालदे” का कीचकगढ़ के राजकुमार “सुल्तान” से पहली मुलाकात सावन के महीने में ही हुई थी। शिकार खेलने गया सुल्तान रास्ता भटक कर राजा मघमान के जनाने बाग में पहुंच जाता है, जहां कंवर अपनी सखियों के साथ झूला झूल रही होती है। सुल्तान कंवर के रूप पर मोहित हो जाता है। उधर, बाग में पराए मर्द को देखकर निहालदे की सखियां भाग खड़ी होती हैं। तब एकांत में कंवर और सुल्तान एक दूसरे से मिलते हैं और एक-दूसरे को चाहने लगते हैं। बाद में दोनों की शादी हो जाती है, लेकिन परिस्थितियां कुछ ऐसी बनती हैं कि सुल्तान निहालदे को छोड़कर चला जाता है। निहालदे और सुल्तान के बिछोह का मार्मिक वर्णन हरियाणवी लोक गीतों में मिलता है।
लोककथाओं के अनुसार, निहालदे से जुदा होते समय सुल्तान उसे वचन देता है कि वह 6 वर्ष बाद हरियाली तीज के दिन उससे आकर मिलेगा। निहालदे इसी मिलन की आस में 6 सावन गुजार देती है। इस दौरान वह अपने हृदय की व्यथा को गीतों के माध्यम से व्यक्त करती है। जैसे ही सावन का महीना शुरू होता है, निहालदे पति से मिलने को तड़प उठती है। सावन की रिमझिम फुहार, कोयल की कूक और मोर व पपीहे की मीठी बोली उसकी पीड़ा को और बढ़ा देती हैं। यह इंसान और प्रकृति के बीच निकट संबंधों का जीवंत उदाहरण है कि विरह की अग्नि में जलती निहालदे अपने हृदय की व्यथा को पेड़-पौधों और पशु-पक्षियों के सामने भी व्यक्त करती है और उनसे विनती करती है कि वे सुल्तान को उसकी पीड़ा से अवगत करवा दें। निहालदे की व्यथा को दर्शाते यही विरह गीत सावन के महीने में हरियाणा की महिलाओं द्वारा बड़ी आत्मीयता से गाए जाते रहे हैं।
वीरता, रोमांच, प्रेम और लोकमंगल की आदर्श भावना का सहज एवं भव्य संगम “निहालदे-सुल्तान” की यह प्रेम कहानी हरियाणा के जनमानस में बहुत गहरे तक रची-बसी है। लोककथाओं के अनुसार, कीचक गणराज्य वर्तमान सोनीपत के समीप स्थित बताया जाता है। यहां का राजा चकवा बैन काफी प्रतापी तथा प्रसिद्ध शासक हुआ है। सतनाली के खंडहर आज भी चकवा बैन की याद ताजा करवाते हैं। भाट उसकी वीरता, उदारता, न्यायप्रियता और कला प्रेम के किस्से गाते हैं।
कहा जाता है कि सुल्तान इन्हीं राजा चकवा बैन का पौत्र था। सुल्तान के पिता राजा मैनपाल की असमय मृत्यु के बाद चकवा बैन ने उसे काफी लाड-प्यार से पाला। लेकिन इस लाड-प्यार ने सुल्तान को बिगाड़ दिया और वह उद्दंड हो गया। न्यायप्रिय चकवा बैन ने उसकी उच्छशृंखलताओं के दंड स्वरूप उसे 12 बरस का दसोटा दे दिया। सुल्तान ने पितामह की आज्ञा का पालन कर नगर त्याग दिया और इंदरगढ़ (वर्तमान इंद्री) चला गया। वहां वह चकवा बैन के मित्र कामध्वज के पास उसका धर्मपुत्र बनकर रहने लगा। एक दिन वह कामध्वज के पुत्र फूलकंवार के साथ शिकार खेलने गया और घूमते-घूमते केलागढ़ राज्य (वर्तमान में करनाल) पहुंच गया। वहीं उसकी मुलाकात कंवर निहालदे से हुई। उस समय सावन का महीना था और कंवर निहालदे अपने बाग में झूला झूल रही थी। हरियाणा में गाए जाने वाले एक सावन-गीत में कवर निहालदे के झूला झूलने वाले दृश्य का वर्णन इस प्रकार किया गया है –
एक डस झूलैं बाहमन-बनिए जी
एजी कोई एक डस मुगल पठान, बिचले बिचले हिंडोले कंवर निहालदे जी।
रिमझिम-रिमझिम अम्मा मेरी मेंह पड़ै जी
ए जी कोई बरसै मूसलधार, पड़ी हे पंझाळी हरियल बाग म्है जी।
पहली ही मुलाकात में दोनों में प्रेम हो जाता है और राजा केशव कामध्वज तथा कंवर के पिता राजा मघमान आपस में विचार-विमर्श कर दोनों का विवाह कर देते हैं। फूलकंवार इस विवाह से प्रसन्न नहीं होता। वास्तव में, निहालदे पर उसकी अपनी नजर थी। इसलिए उसने सुल्तान को मारने की योजना बनाई, ताकि उसकी मृत्यु के बाद निहालदे को अपना सके। संयोगवश सुल्तान को समय रहते इस योजना का पता लग जाता है और वह तुरंत इंदरगढ़ छोड़ने का फैसला कर लेता है। इंदरगढ़ छोड़ने से पहले सुल्तान कंवर को अपने पिता के घर भेज देता है। तब सुल्तान के दसोटे के 6 वर्ष शेष रहते थे। इसलिए उसने कंवर निहालदे से 6 वर्ष बाद तीज के दिन मिलने का वायदा किया।
इस प्रकार कंवर निहालदे 6 वर्ष तक विरह की अग्नि में जलती और सुल्तान को याद कर-करके रोती रहती है। कथा के अनुसार सुल्तान की याद उसे रात-दिन सताती है। यहां तक कि रात को सपने में भी वह सुल्तान से मिलन की धूप-छांव में तड़पती रहती है। इसी प्रकार के सपने की चर्चा निहालदे अपनी बांदी ऊदा से करती है –
मेरी बांदी मन्नै सपना आया जळ जाणा
जणू लीला-सा घोड़ा, अर घोड़े पर बैठ्या पातलिया असवार।
छैल छबीला ए पोता बैन का
बांदी पांचों लग रहे थे जरी लपेटे हथियार।
दूसरी ओर, इंद्रगढ़ छोड़ने के बाद सुल्तान महाराज नल के पुत्र राजा ढोलकंवर एवं रानी मरवण के राज्य नरवरगढ़ में नौकरी कर लेता है। उन दिनों नरवरगढ़ में लोकतापी त्रिप्रदेह दानव का आतंक छाया हुआ था। राजा ढोलकंवर सहित नरवरगढ़ की जनता उससे बेहद परेशान थी। सुल्तान नरवरगढ़ में लोकतापी त्रिप्रदेह दानव को मौत के घाट उतार देता है। इसके बाद वह रानी मरवण को भूमिसिंह बंजारे के चंगुल से छुड़वाकर ढोलकंवर और मरवण पर अपनी बुद्धि व वीरता का सिक्का जमा देता है। इससे प्रसन्न होकर मरवण उसे राज्य का सेनापति बनाने के साथ-साथ अपना धर्म भाई भी बना लेती है। नरवरगढ़ में रहते हुए ही सुल्तान की मुलाकात जानी चोर से भी हुई बताते हैं। हरियाणवी जनमानस में इन दोनों की मित्रता और वीरता के किस्से काफी प्रचलित हैं।
इस प्रकार सुल्तान को नरवरगढ़ में रहते हुए 6 वर्ष बीत जाते हैं। लोकश्रुतियों के अनुसार, सावन का महीना लगते ही निहालदे के धैर्य जवाब दे देता है। सुल्तान को ढूंढने और उस तक अपने मन की बात पहुंचाने के लिए विरह की मारी कंवर 84 परवाने लिखती है। वह ये परवाने भाटों को देकर उन्हें अलग-अलग दिशाओं में भेज देती है। निहालदे के दूत उसके मार्मिक प्रेम पत्रों को हर राज्य में जा-जाकर गाते हैं, ताकि कहीं पर सुल्तान उन्हें सुन ले और अपने वचन को याद कर वापस लौट आए। लोकगीतों में कंवर की इस विरह-वेदना का बहुत ही सजीव चित्रण किया गया है। इसी की बानगी है इस लोकगीत की ये पंक्तियां –
हंसां नै समंदर छा लिए, कुंजा नै छाए परबल ताल,
चंदा छाया काळी बादळी, जोवण नै छा ली कंवर निहाल।
और घनेरी मारू के लिखूं, आज भरे समंदर ज्यूं उठै झाल,
जळ कै मरूंगी पर नरणी तीज नै, तेरे पे हो बालम मैं घाल।
जैसा कि इस लोक राग में वर्णन किया गया है, निहालदे ने सुल्तान के न आने की स्थिति में तीज के दिन जिंदा जलकर मरने की सौगंध खा ली। कथा में एक स्थान पर ऐसा प्रसंग भी आता है कि निहालदे को भाटों से सूचना मिलती है कि सुल्तान मरवण के यहां रह रहा है। वह सुल्तान और मरमण के संबंध को गलत समझ बैठती है और उसे अपनी सौत का दर्जा दे देती है। यही नहीं, एक परवाना लिखकर वह मरमण से अपने पति को छोड़ देने की विनती करती है। साथ ही क्षोभ व आक्रोश में आकर मरवण के राज्य पर बिजली गिरने और उसके पति ढोल को काले नाग द्वारा डस लेने की बद्दुआ भी देती है। मरवण को संबोधित एक लोकगीत में वह कहती है –
मरवण मेरा बंध्या री बंधाया
रह गया एक कांगणा,
पापी फेरयां का चोला
रह गया ए सिर पर लाल।
जब नरवरगढ़ में निहालदे का दूत निहालदे के परवाने को पढ़ता है, तो मरवण सारी बात समझ जाती है और सुल्तान को तुरंत केलागढ़ के लिए रवाना कर देती है। इधर, तीज के त्यौहार पर जब सारी महिलाएं बागों में पींग बढ़ा रही होती हैं, तो निहालदे अपने पति की इंतजार कर चिता तैयार कर रही होती है। जब उसे यकीन हो जाता है कि सुल्तान अब नहीं आएगा, तो वह चिता जलवा लेती है और उसमें बैठ जाती है ताकि अपने प्राणों का अंत करके विरह के दुख से निजात पा सके। लेकिन ठीक उसी समय सुल्तान आकर उसे मूर्छावस्था में चिता से बाहर निकाल लेता है। दोनों का मधुर मिलन होता है और सुखद अंत के साथ ही इस लोक गाथा का भी समापन होता है।
एक अन्य श्रुति के अनुसार, कीचकगढ़ राज्य वर्तमान Rajasthan में और केलागढ़ पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जिला Gautam Buddh Nagar में स्थित था। वहां दनकौर से सूरजपुर के बीच राजा मघमान का नौलखा (वर्तमान कासना गांव) बाग था, जहां नर सुल्तान और निहालदे की पहली मुलाकात हुई थी। इस कथा में कहा गया है कि सुल्तान के पहुंचने से पहले ही निहालदे चिता में जलकर सती हो गई थी। यानी, सुल्तान उसे बचा नहीं पाया था। कासना में एक मंदिर भी है, जिसकी मान्यता सती निहालदे के मंदिर के रूप में है। कहते हैं कि यह मंदिर नर सुल्तान ने निहालदे की याद में बनवाया था।
कथा कुछ भी हो, परंतु यह सत्य है कि महिलाओं द्वारा लोकगीतों के रूप में गाई जाने वाली निहालदे और सुल्तान की यह गाथा स्त्री हृदय के सच्चे भावों को सहज रूप में समेटे है। इस क्षेत्र में यह कथा इतनी लोकप्रिय रही है कि अनेक सांगियों ने इस पर सांग बनाए और जोगी व लोक गायकों ने इस कथा को गीतों के रूप में गाया। हरियाणा में “निहालदे” के नाम से रागों पर आधारित एक पूरी लोकगायन शैली रही है, जो अब विलुप्त होने के कागार पर है। कभी जन जीवन का अभिन्न अंग और निहालदे के शाश्वत प्रेम का प्रतिमान रही इस लोकगाथा तथा इससे जुड़ी गायन शैली के बारे में आज की पीढ़ी को बहुत कम मालूम है। यह अलगाव अपनी सांस्कृतिक विरासत के प्रति हमारी उदासीनता का ही एक नमूना है, जिसकी वजह से जीवन में संवेदनाओं का सहज प्रवाह बाधित हुआ है और समाज में अनेक विसंगतियां पैदा हो गई हैं।
– अविनाश सैनी।
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