ll सुरेंद्र कुमार ll
हरियाणा सरकार ने 29 मई 2023 को राज्य के विश्वविद्यालयों को अगले पांच साल में आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनने का निर्देश दिया है। यह सुझाव भी दिया गया है कि विश्वविद्यालय अपने वित्तीय संसाधनों को उत्पन्न करने के लिए एक रोड मैप तैयार करें। ये सुझाव हरियाणा में उच्च शिक्षा प्रणाली की वास्तविकताओं को एकदम अनदेखा करते हैं जिस कारण इसके अनेक दुष्परिणाम निकलेंगे। दूसरा, ये सुझाव नई शिक्षा नीति की मूल भावना के विपरीत हैं।
धरातल की वास्तविकताएँ क्या हैं? हरियाणा में राज्य सरकार द्वारा निर्मित बीस विश्वविद्यालय हैं, जिनमें से नौ बहु-संकाय विश्वविद्यालय हैं। बाक़ी विश्वविद्यालय पिछले डेढ़ दशक के दौरान अस्तित्व में आए हैं तथा बहुसंकाय न हो कर विशिष्ट विषयों के अध्ययन से सम्बद्ध हैं – इनमें से अधिकांश में केवल व्यावसायिक पाठ्यक्रम हैं। बहु-संकाय विश्वविद्यालयों में तीन दशक से अधिक पुराने तीन (कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय,कुरुक्षेत्र; महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय, रोहतक तथा गुरु जम्भेश्वर विश्वविद्यालय, हिसार) में ही अनुसंधान एवं विकास की कुछ क्षमता है। अन्य छ: विश्वविद्यालय अभी अपनी प्रारंभिक अवस्था में हैं। उनमें से चार के पास तो अपने विकसित परिसर भी नहीं हैं। अधिकांश विश्वविद्यालयों में स्थाई प्राध्यापकों के पचास प्रतिशत से अधिक पद खाली हैं। वे अनुबंध के आधार पर जूनियर फ़ैकल्टी की नियुक्ति करके शिक्षण कार्य चला रहे हैं। वरिष्ठ शिक्षकों के भी अधिकतर पद खाली पड़े हैं। अधिकांश वरिष्ठ पदों पर यू.जी.सी. की करियर एडवांसमेंट स्कीम के तहत पदोन्नत शिक्षक हैं जो सीधे नियुक्त प्रोफ़ेसरों का विकल्प बिल्कुल नहीं हो सकते। इन परिस्थितियों में, राज्य द्वारा विश्वविद्यालयों से प्रतिस्पर्धी अनुसंधान एवं विकास की अपेक्षा रखना एक आदर्शवादी परिकल्पना है।
कस्तूरीरंगन समिति ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2019 के अपने मसौदे में स्पष्ट शब्दों में कहा था कि शिक्षा के लिए विभिन्न सरकारों द्वारा उपलब्ध किये जाने वाले वित्तीय संसाधनों को सार्वजनिक व्यय कहना ग़लत है। यह तो एक राष्ट्रीय निवेश है। शिक्षा के लिए बजटीय प्रावधान करते समय राजनीतिक नेतृत्व के साथ-साथ नौकरशाही को भी अपनी परम्परागत मानसिकता को बदलना चाहिए। शिक्षा में निवेश तो किसी भी राष्ट्र के लिए सबसे अच्छा व्यय है। शिक्षा का सामाजिक प्रतिफल निजी प्रतिफल की तुलना में कम से कम तीन से चार गुना अधिक है।
देश की नई शिक्षा नीति-2020 में स्वीकार किया गया है कि अपर्याप्त वित्तीय सहायता सरकारी विश्वविद्यालयों और कॉलेजों जैसे उच्च शिक्षा संस्थानों में शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार के लिए प्रमुख बाधा रही है। आज तक केंद्र और राज्य सरकारों का संयुक्त व्यय भारत में सकल घरेलू उत्पाद का 4.43% रहा है। वर्ष 2017-18 में यह कुल बजटीय आवंटन का लगभग 10% था। नीति दस्तावेज़ खेद व्यक्त करता है कि भारत में शिक्षा के लिए बजटीय सहायता दुनिया के विकसित और अन्य विकासशील देशों की तुलना में सबसे कम थी। सिफ़ारिश की गई है कि शिक्षा पर निवेश (व्यय) को सकल घरेलू उत्पाद का 6% तक फ़ौरन बढ़ाया जाना चाहिए। भारतीय राज्य की यह प्रतिबद्धता 1968 की पहली शिक्षा नीति के बाद से लंबे समय से लंबित है।
नीति दस्तावेज़ में इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा सभी फ़ंड्ज़ बिना किसी रुकावट के समय पर जारी किए जाने चाहिएँ। सरकार द्वारा एक बार बजट स्वीकृत हो जाने के बाद, आवंटित धन के किसी भी हिस्से को रोके जाने का कोई कारण नहीं होना चाहिए। एक बार जब सरकार ने विश्वविद्यालयों और कॉलेजों की संस्थागत विकास योजना (आई.डी.पी) को मंज़ूरी दे दी है, तो धन का संवितरण बिना किसी देरी के तब तक किया जाएगा जब तक कि यह उस अंतिम इकाई तक नहीं पहुंच जाता जहां उन्हें खर्च किया जाना है। राशि वितरण की प्रक्रिया को पूरी तरह पारदर्शी बनाया जाएगा ताकि आसानी से उसकी निगरानी की जा सके और सभी स्तरों पर जवाबदेही तय की जा सके। इसके अलावा, नीति सिफ़ारिश करती है कि सरकार को पर्याप्त संख्या में शिक्षकों और कर्मचारियों की स्थाई नियुक्ति के साथ-साथ शिक्षकों के विकास (शिक्षण और अनुसंधान की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अपने विषय ज्ञान को अद्यतन/ताज़ा करना) के लिए उच्च शिक्षा संस्थानों को आवश्यक वित्तीय सहायता और धन प्रदान करना चाहिए। नीति इस बात को भी रेखांकित करती है कि वित्तीय प्रशासन और प्रबंधन धन के सुचारू, समयबद्ध और उचित प्रवाह और ईमानदारी के साथ उनके उपयोग पर ध्यान केंद्रित करेगा।
एन.ई.पी.-2020 के उपरोक्त दिशा-निर्देशों को लागू करवाने के लिए, हरियाणा सरकार को एक वैधानिक राज्य उच्च शिक्षा आयोग की स्थापना करनी चाहिए जो विश्वविद्यालयों की दीर्घकालिक विकास योजनाओं को तैयार करने और उनके कार्यान्वयन का समन्वय करे।
याद रहे कि पिछले वर्ष भी राज्य सरकार ने अधिसूचना जारी की थी कि राज्य सरकार द्वारा विश्वविद्यालयों को दिए जाने वाले अनुदानों को ऋण माना जाएगा। इस निर्णय का सभी हितधारकों ने विरोध किया था और सरकार को अधिसूचना वापस लेनी पड़ी थी।
हरियाणा सरकार नई शिक्षा नीति को अक्षरश: लागू करने का दावा करती है, लेकिन उसके इस तरह के तदर्थ नीतिगत फ़ैसलों में विश्वास बहाल नहीं होता। हरियाणा सरकार को अपने इस प्रकार के तदर्थ कदमों पर पुनर्विचार करना चाहिए और उच्च शिक्षा प्रणाली की अखंडता को बहाल रखना चाहिए। ऐसा होने पर ही उच्च कोटि की शिक्षा प्रणाली विकसित की जा सकती है, जिस के तहत इक्कीसवीं सदी के लिए आवश्यक योग्यता और निपुणता से लैस विद्यार्थियों का निर्माण किया जा सकेगा, जैसा कि एन.ई.पी.-2020 में कल्पना की गई है।
– डॉ. सुरेंद्र कुमार महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय, रोहतक (हरियाणा) में अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर एवं अकादमिक मामलों के डीन रहे हैं।
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