– मीनू हुड्डा
दिशाएँ सर्वत्र ओढ़े नितांत मौन हैं,
मर्यादाएँ समस्त, पूर्णतया गौण हैं,
हवाओं में न कहीं गर्मजोशी है,
अजस्त्र मरघट सी खामोशी है,
ओ रे माझी! थाम लो पतवार,
अविलम्ब चलो बीच मझधार,
कि मुझमें अभी जीवन बाक़ी है।
आज मन एकाकी है।।
हुआ शुष्क तरु सा अतृप्त जीवन,
आवेशों व आवेगों में लिप्त जीवन,
ख़ालिस कुंठाओं से पटा जीवन,
निर्बाध शंकाओं से अँटा जीवन,
निशंक मीन नयन से हटा जीवन,
अगणित मण्डलों में बँटा जीवन,
सुकून ज्यों चलचित्र की झाँकी है।
आज मन एकाकी है ।।