भारत-पाक ही नहीं, समूचे दक्षिण एशिया की आम जनता की बीच मैत्रीपूर्ण संबंधों के पैरोकार अली सरदार जाफ़री का जन्म गुलाम भारत में हुआ। उनका पूरा घराना मजहबी था। उन दिनों मध्यवर्गीय मुस्लिम परिवारों में गुलो-बुलबुल की शायरी की बजाय अनीस के मरसिए और नात-ओ-हम्द ही पढ़े-सुने जाते थे। आज भी मध्यवर्गीय मुस्लिम परिवारों का माहौल कमोबेश ऐसा ही है। लेकिन 29 नवंबर 1913 को यूपी के बलरामपुर में पैदा होने वाले इस शख्स ने जब कलम उठाई, तो समाज की विडंबनाओं और अंग्रेज़ी हुकूमत की ज़्यादतियों को रेखांकित करने के साथ-साथ पूरी दुनिया में अम्न, सद्भाव और आपसी भाईचारे के विचार को मजबूत करने पर ही सबसे ज़्यादा ज़ोर दिया। जैसे माहौल और परिवार से वे आए थे, उनसे इस तरह की तरक्की पसंद शायरी की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। लेकिन सरदार जाफरी अपने परिवेश से उलट दिशा में चले। जाफ़री की शायरी ने उस माहौल में नई चेतना पैदा कर दी। उन्होंने अपने परिवेश में घट रही घटनाओं को ही अपना मौज़ू बनाया और चंद दिनों में ही अपने समय के सबसे प्रमुख कलमकारों में शुमार हो गए। आज भी उनकी तमाम नज़्में बेहद उल्लेखनीय हैं, बात-बात में उनका ज़िक्र किया जाता है।
हाई स्कूल पास करने के बाद सरदार जाफ़री आगे की पढ़ाई के लिए अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय पहुंचे। वहां आज़ादी का आंदोलन जोर-शोर से जारी था। लेखकों की सरगर्मियों से लेकर आम विद्यार्थियों तक में आज़ादी के लिए कुछ कर गुज़रने जबरदस्त जज़्बा था। एएमयू में उन्हें जां निसार अख्तर,अख्तर हुसैन रायपुरी, शसिब्ते हसन, जज़्बी और मजाज़ जैसे अदीबों की सोहबत मिली। इनको पढ़ा, इनके विचारों को समझा और इनसे प्रभावित हुए। लिहाज़ा, इनका तेवर भी राजनैतिक हो गया और अपने कलाम को इसी रंग में रंग दिया, जो उस वक्त की सबसे अधिक ज़रूरत थी। मगर आंदोलनों में सक्रिय रहने और हड़ताल में भाग लेने के कारण उन्हें एएमयू से निकाल दिया गया। यहां से वे एंग्लो-एरेबिक कॉलेज दिल्ली पहुंचे और स्नातक की परीक्षा पास की। फिर लखनऊ यूनिवर्सिटी में स्नातकोत्तर की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके बाद वे मुंबई चले गए और कम्युनिस्ट पार्टी के सक्रिय सदस्य बन गए। राजनैतिक आंदोलनों के कारण उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। यहां तक कि अपने बगावती तेवरों के कारण आज़ाद भारत में भी जेल की सलाखों के पीछे बैठना पड़ा। इस माहौल का उनके दिलो-दिमाग पर काफ़ी असर पड़ा और उनकी कलम से चिंगारियां निकलने लगीं। अपनी नज़्म ‘जेल की रात’ में वे कहते हैं –
पहाड़ सी रात
उदास तारे, थके मुसाफिर
घना अंधेरा, स्याह जंगल
जहां सलाखें उगी हुई हैं
अज़ीयतोंके पुराने इफ़्रीत कैदियों को निगल रहे हैं
खामोशी सहमी खड़ी है
स्याही अपने दांतों से रौशनी को चबा रही है
उचाट नींदों के नाग आंखों को डस रहे हैं
मैं छिद रहा हूं हज़ार कांटों से
अपनी बेचैन करवटों में।
सरदार जाफ़री ने जब लिखना शुरू किया था, लगभग उसी समय हिंदुस्तान में प्रगतिशील लेखक संघ सामने आया था। अंग्रेजी साम्राज्य के बढ़ते प्रभाव के खिलाफ खूब लिखा-पढ़ा जा रहा था। विश्वयुद्ध के नतीज़े सामने आने लगे थे। बेकारी और भूख मिटाने की चिंता साफ दिख रही थी। मजदूर वर्ग और उनके लिए आवाज़ उठाने वाले लोग काफी परेशान थे। तभी भारत आज़ाद हुआ। लेकिन इसके हिस्से बंटवारे का जख्म आया। भारत से पाकिस्तान और पाकिस्तान से भारत आने-जाने की जिद्दोजहद में बेशुमार लोगों का कत्लेआम हुआ। इन नज़ारों ने सरदार जाफ़री को अंदर तक हिला दिया और उनकी कलम की धार और तेज़ हो गई। इस के बाद उन्होंने बगावत, फ़रेब, सैलबे-चीन, जश्ने बगावत जैसी अनेक नज़्में लिखीं। एक नज़्म इस शक्ल में भी सामने आई –
जितना जुल्म सहते हैं
और मुस्कुराते हैं
जितना दुख उठाते हैं
और गीत गाते हैं
जब्र और बढ़ता है
ज़हर और चढ़ता है
ज़ालिमों की शिद्दत पर
जुल्म चीख उठता है
उनके लब नहीं हिलते
उनके सिर नहीं झुकते
दिल से आह के बदले
इक सदा निकलती है
‘इंकलाब ज़िंदाबाद’
सरदार जाफ़री सिर्फ़ शायर ही नहीं थे। वे संपादक, आलोचक, कहानीकार, नाटककार और सामाजिक-राजनीतिक चिंतक भी थे। उन्होंने अनेक कहानियां और नाटक लिखे, जोशीले भाषण दिए और फिल्मों में मौजूदगी भी दर्ज करवाई। उन्होंने शायरी से पहले ही कहानियां लिखनी शुरू कर दी थीं, लेकिन वक्त के तकाज़ों को रेखांकित करती हुईं नज़्मों के कारण वे ज़्यादा और जल्दी चर्चा में आ गए। उनका पहला कहानी संग्रह ‘मंज़िल’ 1938 में छपा, जबकि शेरी मजमूआ ‘परचम’ 1943 में प्रकाशित हुआ।
बंटवारे के बाद हुए दंगों में जाफ़री के मामू का कत्ल कर दिया गया। परेशानहाल उनका परिवार पाकिस्तान चले जाने को मजबूर हुआ, लेकिन जाफ़री अपने मुल्क में ही रहे। आज़ादी और बंटवारे के बाद जाफ़री की अभिरुचि राजनीति में कम होने लगी और वे पूरी तरह से साहित्य के प्रति समर्पित हो गए। इनकी किताबों में पत्थर की दीवार, अवध के फ़ाके, मेरा सफर, नई दुनिया को सलाम, खून की लकीर और पैरहन-ए-शरर प्रमुख हैं। उन्होंने हिंदी फिल्मों के लिए भी लेखन किया। सबसे पहले 1952 में ख्वाजा अहमद अब्बास की फिल्म ‘अनहोनी’ के लिए गीत लिखा। फिर पंकज मलिक की फ़िल्म ‘ज़लज़ला’, दिलीप कुमार अभिनीत ‘फुटपाथ’ के अलावा ‘धोबी डॉक्टर’, ‘परदेसी’ और ‘शहर और सपना’ आदि फ़िल्मों के लिए गीत लिखे। उन्होंने दूरदर्शन के लिए उर्दू शायरों के जीवन और उनकी शायरी पर बने जलाल आगा निर्देशित धारावाहिक ‘कहकशां’ का लेखन भी किया। इसके अलावा, वे भारतीय इतिहास के विभिन्न दौरों को प्रस्तुत करने वाले धारावाहिकों – रौशनी और आवाज़ तथा साबरमती से भी जुड़े रहे। उन्होंने दीवान-ए-गालिब, दीवान-ए-मीर, प्रेम बानी और कबीर बानी का संकलन एवं संपादन भी किया।
सरदार जाफ़री की रचनात्मकता और अम्न-सद्भाव के लिए किए गए उनके कामों को सलाम करते हुए समय-समय पर उन्हें विभिन्न पुरस्कारों और सम्मानों से नवाजा गया। उन्हें मिले प्रमुख सम्मानों में पद्मश्री, सोवियतलैंड नेहरू पुरस्कार और ज्ञानपीठ पुरस्कार शामिल हैं। पाकिस्तान सरकार ने भी 1978 में उन्हें गालिब स्वर्ण पदक सम्मान से सम्मानित किया, हालांकि बंटवारे की मुखालफत करने की वजह से पाकिस्तान सरकार ने जुलाई 1977 तक उनके पाकिस्तान आने पर पाबंदी लगाई हुई थी। इसके अलावा उन्हें उत्तर प्रदेश उर्दू एकेडमी अवार्ड, सज्जाद ज़हीर अवार्ड, मखदूम अवार्ड, मीर तकी मीर अवार्ड, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ अवार्ड, इकबाल सम्मान, कुमारन आसन अवार्ड और हिंद रूस दोस्ती मैडल से भी सम्मानित किया गया।
ज़िन्दगी भर अपनी कलम से गरीब-मजदूरों के हक के लिए आवाज़ उठाने वाली इस महान शख्सियत का एक अगस्त 2000 को निधन हो गया। लेकिन अदीबों, सामाजिक-संस्कृतिक एवं मानवाधिकार कार्यकर्ताओं तथा मेहनतकश अवाम के बीच वे हमेशा ज़िंदा रहेंगे। उनकी लेखनी सदा शान्ति और भाईचारे के रास्ते पर आगे बढ़ने का रास्ता दिखाती रहेगी। उन्हीं के शब्दों में –
‘सदियों का पुराना खेल हूं मैं
मैं मर के अमर हो जाऊंगा।’