संपादकीय -14

सामाजिक चिंतक और मानवाधिकार कार्यकर्ता हमेशा मानते रहे हैं कि युद्ध किसी समस्या का हल नहीं है। इसलिए वे देश की सुरक्षा की आड़ में हथियारों पर किए जाने वाले बेतहाशा खर्च का भी विरोध करते हैं। ऐसे लोगों का मानना है कि नागरिकों की शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक क्षमताओं का विकास ही देश और समाज की वास्तविक सुरक्षा की गारंटी है। इसलिए सरकारों को हथियारों पर खर्च बढ़ाने की बजाय शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं को बेहतर बनाकर अपने नागरिकों के जीवनस्तर को ऊंचा उठाने पर जोर देना चाहिए।
कोरोना महामारी से उपजे वर्तमान संकट में यह विचार एक बार फिर चर्चा के केंद्र में आ गया है। अमेरिका, चीन, ब्रिटेन, स्पेन, फ्रांस, इजरायल और जर्मनी जैसे ताकतवर देश आज कोरोनावायरस के सामने असहाय दिखाई दे रहे हैं। सारी दुनिया एक अदृश्य खौफ के साए में जीने को विवश है।
अमेरिका तक में हजारों लोग मौत के मुंह में समा चुके हैं और अभी भी यह सिलसिला जारी है, लेकिन खुद को तबाही से बचाने में उसके हथियारों का जखीरा कोई काम नहीं आ रहा। दूसरी ओर, हमारे डॉक्टर, नर्स और प्रथम पंक्ति के अन्य योद्धा पीपीई तथा अन्य जरूरी उपकरणों के अभाव में संक्रमण का शिकार हो रहे हैं। निश्चित ही, कोरोना महामारी से एक सबक हमें यह भी मिला है कि अगर दुनिया के देशों ने हथियार इकट्ठे करने की बजाए, सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं और शोध पर अधिक खर्च किया होता, तो संभवतः हम एक वायरल के सामने इस तरह घुटने टेकते नजर न आते।
कहते हैं कि, ‘बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुध ले।’ यानी अभी भी देर नहीं हुई है। आज भी अगर हम हथियारों पर थोड़ा सा खर्चा घटा कर अपने स्वास्थ्य ढांचे को मजबूत करें तो कोरोना से जंग जीतने में बड़ी कामयाबी मिल सकती है। ग्रीनपीस की एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार, लगभग 670 करोड़ रुपए की कीमत के एक एफ-35 फाइटर जेट के बदले 3244 आईसीयू बेड बनाए सकते हैं। भारत में कोरोना संकट शुरू होने से पहले करीब एक लाख आईसीयू बेड थे। यानी, दस फाइटर जेट की कीमत में ही हम आईसीयू बेड की कमी को पूरा कर सकते हैं। इसी तरह 7000 करोड़ रुपए की कीमत के एक छोटे जहाज के बदले 10662 डॉक्टरों को एक साल तक वेतन दिया जा सकता है।
वर्तमान में एक पनडुब्बी की कीमत करीब 21000 करोड़ रुपए है और इतने रुपए में 9180 अत्याधुनिक एम्बुलेंस आ सकती हैं। यही नहीं, एक ट्राइडेंट मिसाइल (228 करोड़ रुपए) की कीमत में 1.7 करोड़ मास्क और एक लेपर्ड टैंक (76 करोड़ रुपए) की कीमत में 440 वेंटिलेटर खरीदे जा सकते हैं। भारत में वेंटिलेटर की कितनी जरूरत है, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि अभी तक हमारे यहां केवल 30,000 वेंटिलेटर थे, जिनमें से 80 फीसदी निजी अस्पतालों में थे। स्वास्थ्य उपकरणों की तुलना में हथियार इतने महंगे हैं, कि लेपर्ड टैंक का एक गोला 2 लाख 40 हजार रूपए में पड़ता है और इतने में करीब 100 लोगों का कोरोना टेस्ट हो सकता है।
कुल मिलाकर, देश अपने रक्षा बजट को जरा सा कम करके पर्याप्त संख्या में पीपीई, दवाइयां और जरूरी उपकरण जुटा सकते हैं। इस तरह न केवल कोरोना संकट से प्रभावी तरीके से निपटा जा सकता है, बल्कि भविष्य के लिए भी स्वास्थ्य सुविधाएं अर्जित की जा सकती हैं। कोरोना संकट ने पूरी दुनिया को अपनी प्राथमिकताओं के बारे में पुनर्विचार करने का अवसर दिया है, जो निस्संदेह एक बेहतर दुनिया के सपने को साकार करने में भी कारगर साबित हो सकता है।
मजदूरों के प्रति अमानवीय रुख बेहद शर्मनाक
प्रवासी मजदूरों की दुर्दशा इस समय का एक और ज्वलंत मुद्दा है। भूख-प्यास और जहालत की मार झेल रहे मजदूर अपनी जान की बाजी लगाकर भी घर पहुंचने की जद्दोजहद में हैं, जबकि सभी सरकारें और अधिकारी-कर्मचारी उनके प्रति बेहद अमानवीय रवैया अपनाए हुए हैं।
विभिन्न स्थानों से मिली रिपोर्ट्स के अनुसार बहुत से स्थानों पर प्रशासन न इन्हें राशन उपलब्ध करवा रहा है और न इन्हें अपने गृह राज्य में पहुंचाने की व्यवस्था कर रहा है। हेल्पलाइन नंबर काम नहीं कर रहे, ऐप खुल नहीं रहे, अधिकारी बात सुनने को, कोई जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं और ऊपर से पुलिस बिना कुछ पूछे, बिना उनकी सुने, डंडों से पीट रही है। इतने बड़े पैमाने पर गरीबों की इतनी बेइज्जती, इतना उत्पीड़न और उनकी ऐसी बेबसी शायद ही पहले कभी हुई हो।
कुल मिलाकर सारा सिस्टम ध्वस्त हो चुका है और सरकारें अपनी-अपनी उपलब्धियां गिनाने में मस्त हैं। श्रमिक एक्सप्रेस ट्रेन से मजदूरों को घर भेजने के नाम पर भी राजनीति चरम पर है। लुटे-पिटे मजबूर कामगारों से किराया वसूलने की घटनाएं न केवल दिल दुखाने वाली, बल्कि सभ्य समाज के माथे पर बदनुमा दाग हैं। एक कल्याणकारी राज्य में सरकारों का महाजनों की तरह पीड़ितों का शोषण करना बेहद शर्मनाक है।
कर्नाटक सरकार ने तो हद ही कर दी। मजदूरों को जबरदस्ती घर जाने से रोकने के लिए सरकार पूंजीपतियों के हाथ की कठपुतली बन गई और राज्य से जाने वाली सभी श्रमिक एक्सप्रेस रद्द करवा दी। सोचने की बात यह है कि क्या बंधुआ मजदूर भारतीय अर्थव्यवस्था को गति दे पाएंगे! क्या इसके लिए मजदूरों के काम की परिस्थितियों को बेहतर बनाने और उनकी बुनियादी समस्याओं को हल करना जरूरी नहीं है! निस्संदेह कोरोना संकट के साथ-साथ देश को आर्थिक संकट से उबारने की बेहद जरूरत है और इसमें कामगारों की महत्वपूर्ण भूमिका है। इसलिए सरकारों को अधिक संवेदनशीलता के साथ, योजनाबद्ध और रणनीतिक प्रयास करने की जरूरत है, जिसकी फिलहाल काफी कमी दिखाई दे रही है।