महंगाई की मार देख ल्यो
हो रहे अत्याचार देख ल्यो
जात, धर्म अर गोत के नां पै
किसी छिड़ी तकरार देख ल्यो
खूब तरक्की होई देस म्हैं
घट ग्ये पर रुजगार देख ल्यो
रेप, नसा, नफरत, बेकारी
हत्या के औजार देख ल्यो
ढोंग रचैं शरधा के नां पै
धर्म के ठेकेदार देख ल्यो
मेहनत करैं, बांट कै खावैं
इसे होवैं सरदार देख ल्यो
बूढ़ी-बाळक न कोए सुरक्षित
नित होवैं बलत्कार देख ल्यो।
कुर्सी खात्तर बिकते नेता
एक नहीं सौ बार देख ल्यो।
फूट गेर रहे जनता के मांह
देस के गद्दार देख ल्यो।
- अविनाश सैनी