– हरभगवान चावला
(वरिष्ठ कथाकार एवं कवि हरभगवान चावला की अमित ओहलाण के उपन्यास ‘सुल्फी यार’ पर विस्तृत समीक्षा)
अमित ओहलाण हरियाणा के प्रतिभाशाली युवा उपन्यासकार हैं। इनका पहला उपन्यास ‘मेरा यार मरजिया’ ख़ासा चर्चित रहा था, विशेष तौर पर इस उपन्यास की विशिष्ट शैली ने प्रबुद्ध पाठकों का न केवल ध्यान खींचा, बल्कि मोहाविष्ट भी किया। यह शैली अनायास निर्मल वर्मा की याद दिलाती है, लेकिन यह अमित की अपनी अर्जित की हुई शैली है। निर्मल वर्मा और अमित की शैली में एक ही समानता है और वह है आकर्षण। कुछ लोगों ने इसे जादुई यथार्थवाद कहा। मैं कोई नाम देने से बचना चाहता हूँ। मैं चित्रकला का जानकार नहीं हूँ, लेकिन इतना जानता हूँ कि कुछ चित्र एकदम मूर्त होते हैं। हम देखते ही कह उठते हैं – यह फलाँ का चित्र है। कुछ अमूर्त चित्र होते हैं, इतने अमूर्त कि लाख सर पटकने पर भी अर्थ समझ में नहीं आता। कुछ चित्र ऐसे भी होते हैं जो अभिधा की हद तक सरल नहीं होते। अमूर्त जैसे दिखते हैं, पर थोड़ी कोशिश करने पर बहुस्तरीय अर्थ छलकने लगते हैं। यदि आपके पास समाज-सापेक्ष दृष्टि नहीं है तो आप इन चित्रों को भी अमूर्त या अर्थहीन कहकर पिंड छुड़ा सकते हैं। अमित ओहलाण के समीक्ष्य उपन्यास ‘सुल्फ़ी यार’ को मैं इसी श्रेणी में रखता हूँ।
हमारे एक विद्वान लघुकथा पर लिखते हुए कहते हैं कि कोई भी पात्र जो लघुकथा में आया है, उसके नाम का उल्लेख अवश्य करना चाहिए। इस उपन्यास की सबसे अनोखी बात यह है कि 220 पृष्ठ के इस उपन्यास में किसी एक भी पात्र का कोई नाम नहीं हैं क्योंकि इस उपन्यास में किसी नायक की नहीं, समाज की कथा है और सभी पात्र प्रतिनिधि हैं, तेज़ी से ढहते सामाजिक तानेबाने तथा विकृत होती संस्कृति के। उपन्यास लाउड नहीं है। उपन्यासकार बहुत संयमित तरीक़े से चरमराते समाज के पोर-पोर को टटोलता है। लेखक को पूँजी, बाज़ारवाद, उपभोक्तावाद और वर्तमान राजनीति के चरित्र आदि की गहरी समझ है। यद्यपि लेखक ने कथा के भौगोलिक क्षेत्र का कहीं इशारा नहीं किया, लेकिन गंभीर पाठक सूत्र ढूँढ़ सकता है। दिल्ली के आसपास का हरियाणा इस उपन्यास का भौगोलिक क्षेत्र है। यह वह क्षेत्र है जिसका मूल चरित्र ही पिछले दो दशकों में बदल गया है। राजधानी के पास होने की वजह से उद्योगपतियों और व्यापारियों की नज़र यहाँ की ज़मीनों पर पड़ी। उन्होंने ऊँचे दामों पर ज़मीनें ख़रीदीं। लोगों के पास बेशुमार दौलत आई लेकिन किसान अपनी जड़ों से उखड़ गए। इस दौलत के दम पर वे कई ऐसे धंधों में आए जहाँ ज़्यादा से ज़्यादा पैसा कमाया जा सके, मसलन – प्रॉपर्टी डीलिंग, ढाबे, जिम, ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री। अथाह पैसे ने उन्हें नशे तथा अन्य व्यसनों की ओर उन्मुख किया। पैसा ख़त्म होता गया जबकि पैसे की ज़रूरत बढ़ती गई। इतना पैसा अवैध तरीक़ों से ही कमाया जा सकता था। नशा करते हुए वे नशा बेचने भी लगे। इस धंधे में बहुत पैसा है तो अधिकाधिक युवा इसकी ओर आकृष्ट हुए। एक काम और भी हुआ। हरियाणा सरकार की तरफ़ से पदक विजेता खिलाड़ियों को भारी भरकम पुरस्कार तथा सरकारी नौकरी देने की योजना लागू हुई। इस क्षेत्र का युवा शारीरिक रूप से स्वस्थ और मज़बूत, स्वभाव से निडर और दबंग है। पुलिस तथा फ़ौज की नौकरी यहाँ के युवाओं की प्राथमिकता है। आज भी आप सुबह के वक्त इस क्षेत्र के सैंकड़ों युवाओं को सड़कों पर दौड़ते हुए, दंड पेलते हुए, बैठकें लगाते हुए देख सकते हैं। असल में यह युवा पहलवान होने, बॉक्सर होने या पुलिस और फ़ौज में भर्ती होने की कठिन तैयारी कर रहा है। यहाँ सफलता प्राप्त नहीं होती तो किसी होटल में बाउंसर हो जायेगा, किसी नेता का अंगरक्षक हो जायेगा, ज़मीन पर कब्ज़ा करवाने या छुड़ाने का काम करने लगेगा, गैंगस्टर हो जायेगा या किसी ऐसे धंधे में लिप्त हो जायेगा जो ग़ैरक़ानूनी होगा। लड़कियों का पीछा करना और उनके बारे में जानकारी जुटाना तथा सच्चे झूठे प्यार के मुग़ालते में रहना इस युवा की नियति है। लड़कियों के बाद बढ़िया हथियार और बढ़िया गाडियाँ इनके पसंदीदा शौक़ हैं। इस स्थिति में नशे के चक्कर में बर्बादी की संभावना बहुत अधिक है। यह उपन्यास बहुत बारीक़ी से समाज की इस भयावह स्थिति से वाक़िफ़ करवाता है।
इस उपन्यास में सूना पहाड़ी कमरा है, गाँव का उजड़ा घर है, दुर्घटनाग्रस्त वाहनों के पुर्जे बेचने की दुकान है, जिम है, डम्पर हैं, खेत हैं जो कारखानों में बदल गए हैं और युवा हैं जो नशेड़ियों और गुंडों में बदल गए हैं। इन सब चीज़ो के होने की एक संगति भी है और तर्क भी। इन सब बिखरी हुई चीज़ों के सामूहिक और भयावह यथार्थ को तार्किक और निर्मम तरीके से प्रस्तुत किया गया है। लेखक कहीं भावुक नहीं होता, पाठक ज़रूर नासूर बन चुकी पूँजी तथा तेज़ी से नष्ट हो रहे सामाजिक संबंधों को न केवल महसूस करता है, बल्कि थरथरा जाता है। यह उपन्यास विनाश की ओर तेज़ी से बढ़ रहे समाज की करुण गाथा है। उपन्यास के बहुत से पात्र बहुत सी कहानियाँ सुनाते हैं। हर कहानी भयावह हक़ीक़त के नये अध्याय खोलती है।
मेरा मानना है कि इस पुस्तक को अवश्य ही पढ़ा जाना चाहिए। इस उपन्यास को पढ़ते हुए मेरी आँखों के सामने रोहतक, झज्जर, सोनीपत, जींद, भिवानी के कितने ही गाँव घूमते रहे। लेखक की विश्लेषण क्षमता, पैनी नज़र, अद्भुत शैली सब श्लाघनीय हैं। लेखक ख़ुद जिस समाज का हिस्सा है, उसे यूँ नष्ट होते देख उसका विचलित होना स्वाभाविक है, लेकिन लेखक ने जिस संयम का परिचय दिया है, वह प्रशंसनीय है। संयम के इस पहाड़ के नीचे करुणा की एक अदृश्य लेकिन उमड़ती नदी अवश्य है। इस नदी के बिना इस उपन्यास का लिखा जाना संभव नहीं था। अंत में एक निवेदन- जो विद्वान या पाठक साहित्य की हर विधा का मूल्यांकन परम्परा से चले आ रहे तत्त्वों के आधार पर करने के आदी हैं, वे इस उपन्यास को न पढ़ें। इसका नया शिल्प उन्हें हतप्रभ कर देगा।
पुस्तक का नाम : सुल्फ़ी यार (उपन्यास)
लेखक : अमित ओहलाण
प्रकाशक : आधार प्रकाशन, पंचकूला
मूल्य : 250 रुपए
पृष्ठ संख्या : 220