संपादकीय -15
पिछले दिनों हमारे आसपास कई ऐसी घटनाएं घटी हैं, जिन पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। लॉकडाउन 4.0 के बाद सरकार ने अनलॉक 1.0 का ऐलान करते हुए छूट के दायरे को और बढ़ा दिया है। क्या यह सोचने वाली बात नहीं है कि जब देश में कोरोना लगभग नियंत्रण में था तब सब कुछ शटडाउन था और अब जब यह महामारी सामुदायिक स्तर तक फैल चुकी है और संक्रमितों की संख्या हर रोज पिछला रिकॉर्ड तोड़ रही है, तो सरकार अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ रही है तथा लोगों को अपनी सुरक्षा खुद करने का ज्ञान दे रही है। अगर सारी गतिविधियां शुरू हो जाती हैं – दफ्तर, कारोबार, स्कूल-कॉलेज खुल जाते हैं, तो लोग अपनी सुरक्षा खुद कैसे कर सकते हैं! आरंभ में ‘जान है तो जहान है’ का नारा देने वाली सरकार ने अब आम जनता को राम भरोसे छोड़ दिया है, वह भी तब, जब हमारा स्वास्थ्य ढांचा पूरी तरह से चरमराया हुआ है।
पूरी सुविधाओं के अभाव में अब अन्य लोगों के अलावा स्वास्थ्यकर्मियों के संक्रमित होने का सिलसिला भी तेज हो गया है। अकेले दिल्ली के एम्स में लगभग 500 डॉक्टर, नर्स व अन्य कर्मचारी संक्रमित हो चुके हैं। यही नहीं, वहां का नर्सिंग स्टाफ सुरक्षा की मांगों को लेकर 1 जून से प्रदर्शन कर रहा है। ऐसे दर्दनाक समाचार मिल रहे हैं कि पैसा खर्च करके इलाज करवाने के इच्छुक लोगों को भी अस्पतालों में जगह नहीं मिल रही। सरकारी अस्पतालों की हालत तो पहले ही खस्ता थी, अब गंगाराम, बत्रा, मैक्स, फोर्टिस जैसे बड़े अस्पतालों ने भी हाथ खड़े कर दिए हैं। ऐसे में, गरीबों की क्या हालत होने जा रही है इसका अंदाजा आप खुद लगा सकते हैं।
पलायन करने वाले प्रवासी मजदूरों की स्थिति तो जगजाहिर है। राशन और काम देना तो दूर, सरकारें उन्हें सुरक्षित घर पहुंचाने में भी असफल रही हैं। लगता है कि सरकारों की क्षमताएं चुक गई है। उनके पास इस महामारी तथा इससे उपजी समस्याओं को हल करने की न इच्छाशक्ति है और न ही योजना व रणनीति। उनका पूरा ध्यान रिवेन्यु जुटाने पर लगा है। इसके विपरीत इंसानियत में गहरा विश्वास तथा पीड़ितों के प्रति मन में दर्द रखने वाले अभी भी लोगों के कष्टों पर मरहम लगाने के प्रयासों में पूरी मजबूती से जुटे हैं।
तन, मन, धन से पीड़ितों के साथ खड़े और लगभग 20,000 प्रवासियों को बस, ट्रेन व हवाई जहाज से सुरक्षित अपने घर पहुंचा चुके सोनू सूद जैसे लोगों ने साबित कर दिया है कि अगर दिल में कुछ कर गुजरने का जज्बा हो, तो सीमित क्षमताओं से भी असीमित परिणाम हासिल किए जा सकते हैं। उन्होंने दिखा दिया कि एक अकेला चना भी भाड़ फोड़ सकता है। सच में, सोनू और उन जैसे लोगों ने वह कर दिखाया है, जो सर्व साधन संपन्न सरकारें भी नहीं कर पाई। मानवता के प्रति उनके जज्बे को दिल से सलाम!
कोरोना और लॉकडाउन से हट कर बात करें, तो केरल में गर्भवती हथिनी की दर्दनाक मौत ने सब को दहला दिया है। लेकिन अब इस पर भी राजनीति शुरू हो चुकी है। अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए राजनीतिक दल इस अमानवीय घटना का राजनीतिकरण करने में जुटे हैं, जो निस्संदेह बेहद खराब बात है। हाल ही में हमने सैकड़ों प्रवासी मजदूरों की दर्दनाक मौतें देखी हैं। लोगों को अपने बच्चों के शव कंधे पर ढोते, गर्भवती महिला को प्रसव के तुरंत बाद सैकड़ों मील चलने की पीड़ा से गुजरते और भूख से बिलखते बच्चे को अपनी मृत मां का दूध पीने की कोशिश करते देखा है।
क्या ये अमानवीय घटनाएं इसी धरती पर और यहीं के लोगों की संवेदनहीनता के कारण नहीं घटी! तो फिर मिलकर महामारी से निपटने की बजाय हथिनी की आड़ में राजनीति करने का क्या औचित्य है?
इधर, नस्लभेदी घटनाओं के विरोध में पूरा अमेरिका महाद्वीप गृहयुद्ध की आग में झुलस रहा है। बुरी बात यह है कि न्याय की बात करके लोगों को शांत करने के बजाए राष्ट्रपति ट्रंप भी आग में घी डालते नजर आ रहे हैं। बार-बार युद्ध की बात करके ट्रंप जिस तरह अन्य देशों को हड़काते रहे हैं, वैसा ही वे अपने नागरिकों के साथ ही कर रहे हैं।
इसी साल अमेरिका में राष्ट्रपति का चुनाव होना है। सोचने की बात यह है कि क्या चुनावों में बढ़त हासिल करने के लिए ट्रंप ऐसा कर रहे हैं! यदि ऐसा है तो यह न अमेरिका के हित है और न शेष विश्व के। दूसरी ओर, चीन के साथ सीमा विवाद भी देश के लिए चिंता का विषय बना हुआ है। इन दिनों एक बार फिर चीन ने भारत की सीमा को लांघा है।
इस बार नेपाल भी इसमें एक पक्ष बन गया है। कुल मिलाकर, देश और दुनिया काफी गंभीर दौर से गुजर रहे हैं। ऐसे में हमें अपने मतभेदों को भुलाकर आपसी विश्वास को बढ़ाना होगा और बेहद सोच-समझकर, जिम्मेदारी के साथ अपने नागरिक धर्म का पालन करना होगा।