यह कहानी है हौसले की, जज़्बे की, ज़िंदादिली की। मुश्किल से मुश्किल घड़ी में भी हार न मानने की। संघर्ष के रास्ते पर आगे बढ़ते रहने की …. अपने आप को न टूटने देने की और हर हाल में मानवीय संवेदनाओं को ज़िंदा रखने की… यह कहानी है डॉ. महावीर नरवाल और उनकी बेटी नताशा नरवाल की।
71 साल के जाने माने कृषि वैज्ञानिक, विचारक और जन आंदोलनों के पहली पंक्ति के सिपाही/ अगुआ महावीर नरवाल हमारे बीच नहीं रहे। उनका अंतिम संस्कार 9 माह से दिल्ली की तिहाड़ जेल में बंद रही उनकी बेटी नताशा ने किया, जिसे पिता की अंत्येष्टि के लिए ही 3 सप्ताह की अंतरिम ज़मानत मिली है। अपने अंतिम समय में कोरोना से जूझते हुए शायद डॉ. नरवाल के मन में एक ही टीस होगी, लंबे समय से अपनी बेटी से न मिल पाने की टीस। लेकिन इस दर्द को न तो उन्होंने ज़ुबान पर आने दिया और न ही चेहरे पर। अंत तक मुस्कुराते रहे, दूसरे लोगों को ढाढस बंधाते रहे, हिम्मत देते रहे, औरों की ख़ैर ख़बर लेते रहे। लेकिन ये क्या कम त्रासदी है कि 70 किलोमीटर के दायरे में रह रहे पिता-पुत्री इस मुश्किल घड़ी में भी मिल नहीं पाए। वर्तमान सरकार के लोकतंत्र विरोधी फ़रमानों का विरोध करने के चलते जेल में बंद नताशा पिता से दो बात भी नहीं कर पाई। हालांकि, पिता की बीमारी की ख़बर सुनकर भी उसने हिम्मत नहीं हारी। हमेशा की तरह, दूसरों के दुखों पर मरहम लगाती रही, उन्हें पढ़ाती रही, न्याय-अन्याय के बीच का भेद समझाती रही।
नताशा में यह हिम्मत उनके पिता की बदौलत ही आई है। 13 साल की उम्र में माँ के गुज़र जाने के बाद डॉ. नरवाल ने उसे और उसके छोटे भाई आकाश को मां और बाप दोनों का प्यार दिया। बेटी और बेटे को इंसानियत और प्यार का पाठ पढ़ाया, सही-ग़लत का भेद समझाया। उनमें अपनी ज़िंदगी के फ़ैसले ख़ुद लेने और और उन पर अडिग रहने का माद्दा पैदा किया। वे अपने बच्चों के अभिभावक कम और दोस्त ज़्यादा थे।
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में पीएचडी कर रही नताशा ने जब युवा लड़कियों की आज़ादी के लिए पिंजरा तोड़ अभियान चलाया तो ख़ुद इमरजेंसी के दौरान लोकतंत्र की बहाली के लिए जेल काट चुके डॉ. नरवाल ने उसका पुरज़ोर समर्थन किया। भाजपा सरकार ने जब नागरिकता कानून का विरोध करने पर नताशा और उसकी दोस्तों को जेल में डाल दिया तब भी डॉ. नरवाल ही उसका सबसे बड़ा सम्बल थे। उन्होंने कभी बेटी के जेल में होने का सोग नहीं मनाया, न ही उसे झुकने, माफ़ी मांगने या समझौता करने की सीख दी….उन्होंने हमेशा कहा कि उनकी बेटी लोकतंत्र की रक्षा की लड़ाई लड़ रही है और पीड़ितों के हक़ में खड़ी है। वे सीना ठोककर कहते थे कि संवैधानिक मूल्यों को बचाने की जंग में वह उनसे भी आगे निकल गई है… उन्हें उस पर गर्व है।
ज़ाहिर है कि नताशा ने उनकी पहचान को और विस्तार दे दिया है। नताशा की वजह से आज उनका विचार, उनका काम, उनका व्यवहार वहां वहां पहुंच गया, जहां वे इससे पहले नहीं पहुंच पाए थे। वे खुश थे कि दुनिया आज उन्हें नताशा के पापा के रूप में जानती है।
नताशा के जेल जाने को बेशक डॉ. नरवाल ने कभी बुरा नहीं माना, लेकिन लाख कोशिशों के बावजूद उसे ज़मानत न मिल पाने से कहीं न कहीं परेशान ज़रूर थे। उन्हें डर था कि शायद उनके ज़िंदा रहते नताशा जेल से छूट न पाए।
आख़िरकार डॉ. नरवाल का अंदेशा सही ही निकला, नताशा को बेल तो मिली, पर तब, जब वे इस दुनिया को छोड़कर जा चुके थे। काश हमारा सिस्टम थोड़ा संवेदनशील हो जाए, काश हम सब इस संवेदनहीन सिस्टम को बदलने के लिए आगे आएं! यदि ऐसा होता है तो संभव है कि कुछ और अमानवीय घटनाओं को घटने से रोक पाएं!
जय हिंद! जय भारत!
- अविनाश सैनी।