हालांकि सरकारों की जनता से सच छुपाने की मानसिकता शुरू से ही रही है, लेकिन पिछले दिनों इसमें काफी तेजी से बढ़ोतरी दिखाई दी है। पहले की सरकारों में अधिकारी गुपचुप तरीके से आंकड़ों में हेराफेरी करते थे और इसका खुलासा होने पर दिखावे मात्र के लिए ही सही, कुछ न कुछ कार्यवाही की जाती थी। सच सामने आने पर सरकार को भी शर्मिंदगी झेलनी पड़ती थी। पर अब तो लगता है कि न अधिकारियों को किसी कार्यवाही का डर है और न सरकारों को शर्म आती है। पिछले कुछ वर्षों में ऐसे कई उदाहरण सामने आए, लेकिन सरकारों की सच छुपाने की हरकत मीडिया में आने के बावजूद उनके मुखिया पूरी बेशर्मी से अपने काम में लगे रहे। जापान के प्रधानमंत्री की पिछली भारत यात्रा के समय जहां पर्दे लगाकर गंदगी छुपाने की कोशिश की गई थी, वहीं नमस्ते ट्रंप अभियान के तहत गुजरात में आए अमेरिका के राष्ट्रपति से झुग्गी झोपड़ियों का सच छुपाने के लिए दीवार बना दी गई थी।
पिछले दिनों भी कोरोना के आंकड़ों को छुपाने की खूब कोशिश हुई। मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के साथ साथ गुुुजरात, बिहार व राजस्थान से भी ऐसी खबरें मीडिया में वायरल हुई हैं। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, उत्तर प्रदेश सरकार ने जहां 8 से 14 अप्रैल के बीच 218 लोगों की मृत्यु का आंकड़ा जारी किया, वहीं धरातल पर इससे लगभग 3 गुणा लोगों की मृत्यु के साक्ष्य प्राप्त हुए। एनडीटीवी की रिपोर्ट के अनुसार, इस दौरान 400 लोगों का कोरोना प्रोटोकॉल का तहत अंतिम संस्कार किया गया। इस पर भी अधिकारी गलती मानने की बजाय लीपापोती करने में जुटे हैं। जाहिर है कि यह सब ऊपर के आदेशों के तहत हो रहा होगा। इससे भी एक कदम आगे, लखनऊ के जिस श्मशान घाट में जलती चिताओं की वीडियो मीडिया में वायरल हुई थी और जिसके कारण सरकार पर मौत के आंकड़े छुपाने के आरोप लगे थे, उस श्मशान घाट के चारों तरफ लोहे की चादरों की दीवार बना दी गई है, ताकि सच लोगों के सामने न आ सके।
चिंता की बात यह है कि वर्तमान केंद्र सरकार हर उस सच को अपने देश की जनता से छुपाने के फैसले ले रही है, जिससे सरकार की कार्यकुशलता और मंशा पर सवाल खड़े हो सकें और जिससे उस की छवि पर विपरीत असर पड़ता हो। सूचना के अधिकार में संशोधन इन्हीं प्रयासों का एक हिस्सा है। सरकारी कामकाज में पारदर्शिता लाने और शासन की जवाबदेही तय करने वाले इस कानून के चलते कोई भी भारतीय विभिन्न विभागों से कोई भी सूचना प्राप्त कर सकता था। लेकिन अब इस में संशोधन करके सूचना मांगने के अधिकार को सीमित कर दिया गया है। व्यक्तिगत और राष्ट्रीय सुरक्षा का हवाला देकर महत्वपूर्ण मसलों और बड़े जिम्मेदार अधिकारियों/ नेताओं से संबंधित सवालों के जवाब देने से साफ मना कर दिया जाता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से जुड़ी कितनी ही सूचनाएं केंद्रीय सूचना आयोग के आदेशों के बावजूद पीएमओ व अन्य मंत्रालयों द्वारा नहीं उपलब्ध करवाई गई। यह सच को छुपाना नहीं है तो और क्या है? इसी तरह प्रधानमंत्री ने 2019 चुनाव से पूर्व रामलीला मैदान के अपने भाषण में कहा कि देश में कोई डिटेंशन सेंटर नहीं है, जबकि उनके ही मंत्री ने संसद में न केवल असम में डिटेंशन सेंटर्स होने की बात स्वीकार की, बल्कि उनमें मरने वाले लोगों की जानकारी भी दे दी। इसी तरह लद्दाख में चीनी सेना की घुसपैठ के मामले में प्रधानमंत्री ने जहां घुसपैठ से साफ इंकार किया, वहीं भारतीय सेना व रक्षा मंत्रालय ने चीनी सैनिकों से मुठभेड़ की बात मानी और सेटेलाइट तस्वीरों ने तो भारतीय जमीन पर उनकी उपस्थिति भी दिखा दी। इसके बावजूद, इन दोनों ही मामलों में पीएम या सरकार ने खेद व्यक्त करना तक उचित नहीं समझा। इतना ही नहीं, अब तो केंद्र सरकार ने सरकारी विभागों द्वारा नियमित रूप से जारी की जाने वाली रिपोर्ट्स पर भी सेंसर लगा दिया है। उदाहरण के लिए, सरकार के मंत्रालय हर साल उद्योग, व्यापार, महंगाई और रोजगार आदि के बारे में रिपोर्ट जारी करते हैं। लेकिन दिनों दिन बढ़ती बेरोजगारी को देखते हुए केंद्र सरकार ने तय किया है कि बेरोजगारी से संबंधित आंकड़े जारी नहीं किए जाएंगे। यानी, बेरोजगारी के बारे में देश की जनता को सच नहीं बताया जाएगा।
ये तो कुछेक उदाहरण हैं। अगर हम ध्यान से देखेंगे तो ऐसे न जाने कितने ही सच होंगे, जो सरकार हम से छुपा रही है और हमें जानने के अपने नागरिक अधिकारों से वंचित कर रही है। सच छुपाने का एक अर्थ यह भी है कि सरकार अपनी जिम्मेदारियों को निभाने और समस्याओं का समाधान करने के प्रति गंभीर नहीं है। वह समस्याओं को देखने, समझने और दूर करने की बजाय उन पर पर्दा डालने में विश्वास करती है, जो न केवल जनता के लिए, बल्कि देश की तरक्की और सुरक्षा के लिए भी बेहद खतरनाक बात है। मगर दिक्कत की बात है कि अब इन पर बात करने के मंच भी सिमटते जा रहे हैं।
– अविनाश सैनी।