वह मेरे गांव की माटी, भुला दूं किस तरह आख़िर,
वह बूढ़े बाप की लाठी, भुला दूं किस तरह आखिर।
जहां पर माफ हो जाती थी, मेरी गलतियां सारी,
वह मां, वह प्यारी सी दादी, भुला दूं किस तरह आखिर।
अभी भी याद आएं गांव की गलियां वो कच्ची सी,
वहां बिछड़े हुए साथी, भुला दूं किस तरह आखिर।
शहर की रोशनी तीखी, मेरी आंखों में चुभती है,
वह टिम-टिम दीये की बाती, भुला दूं किस तरह आखिर।
कभी सच बात कहने से, न लरजी तोप के आगे,
ज़ुबां की ऐसी बेबाकी, भुला दूं किस तरह आखिर।
वह मेरे गांव की माटी, भुला दूं किस तरह आखिर,
वह बूढ़े बाप की लाठी, भुला दूं किस तरह आखिर।।
– अविनाश सैनी
# 9416233992