संपादकीय
महिला उत्पीड़न और हमारा समाज
– अविनाश सैनी
तथाकथित उच्च वर्ग के लोगों द्वारा कमज़ोर तबके की लड़कियों के यौन शोषण की घटनाओं पर समाज और शासन-प्रशासन का नज़रिया अक्सर परेशान करने वाला रहता है। घटना कितनी भी अमानवीय क्यों न हो, आमतौर पर प्रशासन उसे दबाने या दोषियों को बचाने के प्रयास करते दिखता है। साथ ही, बहुसंख्यक समाज भी इस पर उदासीन रुख अपना लेता है। आप इसके दो ज्वलंत उदाहरण देख सकते हैं। एक उत्तर प्रदेश से है और दूसरा हरियाणा से।
उत्तर प्रदेश के हाथरस जिले में 14 सितंबर 2020 को एक दलित युवती के साथ तथाकथित उच्च वर्ग के चार युवकों द्वारा सामूहिक दुष्कर्म किया गया। घटना के दो हफ़्ते बाद युवती की दिल्ली के एक अस्पताल में मृत्यु हो गई। परिवार के विरोध के बावजूद पुलिस ने आधी रात को लड़की का दाह संस्कार कर दिया। जिलाधीश जैसे वरिष्ठ अधिकारी परिजनों को धमकाते और उन पर दबाव बनाते दिखे। युवती का चरित्रहनन करने की कोशिश की गई। गांव की नाकेबंदी कर दी गई। पीड़ित परिवार के पक्ष में आए लोगों पर दंगा भड़काने का आरोप लगाया गया। दुष्कर्म करने संबंधी पीड़िता के बयान के बावजूद पुलिस ने दुष्कर्म की घटना से इनकार किया। साथ ही आरोपियों के पक्ष में कई गांवों की पंचायत भी हुईं।
इधर, हरियाणा में 30 जून को जिला सोनीपत के बुटाना में 2 पुलिसकर्मियों की कथित हत्या के प्रमुख आरोपी का एनकाउंटर करने के बाद पुलिस ने आरोपी की मित्र सहित दो लड़कियों को भी गिरफ्तार कर लिया। कमज़ोर वर्ग की इन लड़कियों में से एक, नाबालिग लड़की के साथ लगभग दस-बारह पुलिसकर्मियों ने न केवल अलग-अलग पुलिस थानों-चौंकियों में रेप किया, बल्कि निर्भया जैसी दरिन्दगी करने से भी बाज नहीं आए। लड़की की योनि में डंडा और बोतल तक डालने का भी आरोप है। इस के चलते लड़की के गुप्त अंगों से लगातार रक्तस्त्राव हो रहा है। अन्ततः लड़की की मां द्वारा भूख हड़ताल करने के बाद 3 पुलिसकर्मियों के खिलाफ केस तो दर्ज कर लिया गया, लेकिन अभी तक उन्हें गिरफ्तार नहीं किया गया। बाकी आरोपियों पर तो एफआईआर भी नहीं हुई। लड़की आज भी हिरासत में है। घटना को करीब 4 माह बीत चुके, परन्तु किसी टीवी चैनल या अखबार में कोई चर्चा नहीं है। परिवार और कुछ छोटे सामाजिक संगठनों की पहलकदमी के बावजूद कोई बड़ा विरोध-प्रदर्शन नहीं हुआ, जनता में प्रशासन के प्रति कोई रोष नहीं दिख रहा।
हाथरस की घटना राजनीतिक कारणों से चर्चा में आ गई। मीडिया में आने के कारण हाई कोर्ट ने भी स्वतः संज्ञान लेकर मामले को दबाने से बचा लिया।पर बुटाना में ऐसा कुछ नहीं हुआ। पुलिसकर्मियों की हत्या के कारण पहले ही लड़कियों को खलनायिका बना दिया गया। समाज , मीडिया और सरकार की सहानुभूति भी पुलिस के साथ थी। ऐसे में पुलिसकर्मियों के कथित अमानवीय कृत्य पर भी सबने चुप्पी साध ली। हालांकि लड़कियों के पक्ष का कहना है कि 30 जून को भी पुलिसकर्मियों ने इन लड़कियों के साथ बदतमीजी करने की कोशिश की थी और इसी कारण हुई झड़प में दो पुलिसकर्मी मारे गए थे। उनके अनुसार, इस का प्रतिशोध लेने के लिए ही पुलिसकर्मियों ने नाबालिगा के साथ ऐसी दरिन्दगी की।
इस सब के बावजूद, सोचने वाली बात यह है कि अगर ये घटनाएं तथाकथित अगड़ी जातियों और सम्पन्न परिवारों की लड़कियों के साथ घटित होतीं, तो भी क्या समाज की यही प्रतिक्रिया होती? यह सच है कि पितृसत्तात्मक सोच और खोखली आधुनिकता के कारण हमारे यहां महिलाएं शोषण और उत्पीड़न का सबसे आसान टार्गेट हैं। किसी भी जाति-धर्म या वर्ग की कोई महिला (दो दिन की बच्ची से लेकर 80 साल की वृद्धा तक) कहीं भी सुरक्षित नहीं है। यौन शोषण और छेड़छाड़ का मुख्य कारण महिलाओं के प्रति समाज की सोच ही है, जिसके कारण रोज़ छेड़खानी, यौन शोषण, सामूहिक बलात्कार, बलात्कार के बाद हत्या, ब्लैक मेलिंग, तेज़ाब-हमले जैसी घटनाएं सामने आती हैं।
बेशक यह सही है कि महिला को हवस का शिकार बनाते वक्त उसका जाति-धर्म नहीं देखा जाता, लेकिन अफसोस की बात है कि आजकल ऐसी किसी घटना पर समाज की प्रतिक्रिया जाति-धर्म-वर्ग आदि देख कर ही हो रही है। हमारा मानना है कि जब तक समाज का रवैया नहीं बदलता, तब तक न ऐसी घटनाएं रुकेंगी और न ही पीड़िताओं को न्याय मिल पाएगा। क्या सभ्य समाज इस ओर ध्यान देगा?
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