बीजेपी और कांग्रेस के लिए नाक का सवाल बने बरोदा उपचुनाव में अब इन दोनों पार्टियों के बीच सीधी टक्कर होती नजर आ रही है। प्रत्याशी के चयन को लेकर असमंजस में पड़ी कांग्रेस एक समय संकट में नजर आ रही थी। लेकिन ऐन वक्त पर पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने जबरदस्त रणनीतिक कौशल दिखाया और डैमेज कंट्रोल करते हुए अपनी पार्टी को फ्रंट फुट पर ले आए।
कांग्रेस प्रत्याशी इंदु राज नरवाल बड़े नेता नहीं रहे, लेकिन राजनीतिक मजबूरियों के चलते पार्टी ने उन पर दांव खेला। ऐसे में कांग्रेस की टिकट के प्रबल दावेदार डॉक्टर कपूर नरवाल और पूर्व विधायक श्रीकृष्ण हुड्डा के सुपुत्र जितेंद्र हुड्डा ने नाराज़गी ज़ाहिर करते हुए निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर नामांकन भर दिया। इन दो बड़े जाट नेताओं के मैदान में उतरने से कांग्रेस के लिए भारी नुकसान की आशंका पैदा हो गई थी। कपूर नरवाल तो पंचायती उम्मीदवार के तौर पर उभर रहे थे। महम के विधायक बलराज कुंडू और बरोदा गांव के पंचायती उम्मीदवार डॉ. जोगेंद्र मोर ने भी उन्हें समर्थन दे दिया था। जाटों के एक बड़े वर्ग की सहानुभूति भी उनके साथ थी। यदि वे खड़े रहते तो कांग्रेस प्रत्याशी को बड़ा नुकसान पहुंचाते। इस कारण से भाजपा नेता चाहते थे कि कपूर नामांकन वापिस न लें। निस्संदेह जीता हुड्डा भी जाट वोट ही काटते। इसका भी सीधा फायदा बीजेपी के योगेश्वर दत्त को मिलता और उनकी जीत के चांस काफी बढ़ जाते। लेकिन भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने समय रहते तत्परता दिखाई और कपूर नरवाल तथा जितेंद्र हुड्डा को नामांकन वापिस लेने व इंदु राज नरवाल का समर्थन करने के लिए मना लिया। इतना ही नहीं, उन्होंने डॉक्टर जोगेंद्र मोर को भी अपने पक्ष में कर लिया। इस तरह जाट वोटों में होने वाले बंटवारे को रोक कर उन्होंने कांग्रेस को शुरुआती बढ़त दिलवा दी।
अब इनेलो के जोगेंद्र मालिक सहित तीन प्रमुख प्रत्याशी मैदान में हैं। हालांकि यह हलका पूर्व में देवीलाल परिवार का गढ़ रहा है, लेकिन 2009 से यह भूपेन्द्र सिंह हुड्डा का अभेद्य किला बना हुआ है। पिछली बार बीजेपी ने इस जाट बहुल सीट पर नॉन-जाट कार्ड खेलते हुए क्षेत्र के बड़े गांव भैंसवाल के मशहूर पहलवान योगेश्वर दत्त को मैदान में उतारा था, जो ब्राह्मण समुदाय से सम्बंधित हैं। जजपा के भूपेन्द्र मालिक ने भी खूब दम दिखाया था और 32 हज़ार से अधिक वोट लिए थे। परंतु जाट वोटों में बंटवारे और श्रीकृष्ण हुड्डा की सेहत संबंधी समस्या के बावजूद भूपेन्द्र हुड्डा कांग्रेस प्रत्याशी को जिताने में कामयाब रहे। 2019 में भी जोगेंद्र मालिक ही इनेलो प्रत्याशी थे और उन्हें लगभग 3000 वोट ही मिल पाई थीं।
इस बार जजपा, भाजपा के साथ है और उसने अपना उम्मीदवार मैदान में नहीं है। इसलिए टक्कर आमने-सामने की है। हालांकि पिछले दिनों में इनेलो का ग्राफ बढ़ा है। इनेलो प्रत्याशी शरीफ माने जाते हैं और हलके के बड़े ‘मालिक’ गौत्र से संबंधित हैं। पूर्व मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला भी जेल से बाहर हैं। इन सब का फायदा उठाते हुए अभय चौटाला मुकाबले को तिकोना बनाना चाहेंगे। लेकिन अभी परिस्थितियां उनके हक में कम नज़र आ रही हैं। क्षेत्र के जाट मतदाता भूपेन्द्र हुड्डा के पीछे एकजुट हैं। वे नहीं चाहेंगे कि जाट वोट बंटें। दूसरे, इनेलो प्रत्याशी छोटे गांव से हैं और उनकी जीत पर लोगों को कम भरोसा है। यदि वे भैंसवाल जैसे किसी बड़े गांव से होते, तो हालात बदल सकते थे।
कांग्रेस और भाजपा के बीच सीधी टक्कर में सत्तारूढ़ पार्टी के लिए मुश्किलें पैदा हो सकती हैं। जजपा द्वारा भाजपा का साथ देने और किसानों में केन्द्र सरकार के तीन कृषि कानूनों के खिलाफ बने माहौल से जाट समुदाय में दुष्यंत चौटाला को लेकर काफी नाराज़गी नज़र आ रहा है। ऐसे में, बड़ा सवाल यह है कि दुष्यंत गत वर्ष जजपा को मिले कितने वोट भाजपा को दिलवा पाएंगे। कांग्रेस की तो हर संभव कोशिश रहेगी कि जाट मतदाताओं को एकजुट करे और इनमें से अधिकांश वोट उसके प्रत्याशी को मिलें। इनेलो भी इन वोटों में कुछ सेंध लगा सकती है। अब अगर दुष्यंत जजपा को मिले वोट भाजपा को ट्रांसफर करवाने में कामयाब हो जाते हैं (जो थोड़ा मुश्किल काम है), तो निस्संदेह योगेश्वर दत्त काफी मजबूत स्थिति में पहुंच जाएंगे।
कुल मिलाकर देखें, तो भाजपा यह चुनाव अपने रणनीतिक कौशल और विकास के मुद्दे पर लड़ रही है। सरकार में होने का भी उसे फायदा मिल सकता है। अभी, चुनाव से पूर्व सरकार ने क्षेत्र के लिए कई बड़ी घोषणाएं की हैं, जिनमें से कुछ पर तत्परता से काम भी शुरू हो चुका है। भाजपा नेता इसी बात को ज़्यादा से ज़्यादा प्रचारित करने के साथ-साथ ‘बरोदा की सरकार में हिस्सेदारी’ होने पर इस क्षेत्र की दशा बदलने का दावा कर रहे हैं। इसके अलावा, योगेश्वर की छवि और उनकी निरंतर सक्रियता तो उनका प्लस पॉइंट है ही। यह भी महत्वपूर्ण है कि आमतौर पर जाट और गैर-जाट की बात करने वाले भाजपा नेता इस बार इससे बचते नज़र आ रहे हैं। उन्हें लगता है कि जातिगत ध्रुवीकरण से उन्हें अधिक नुक्सान होगा। दूसरी तरफ, ऐसा ध्रुवीकरण कांग्रेस को रास आ सकता है। इसके बावजूद यह काफी मुश्किल चुनाव है। एक विधायक बढ़ने से सरकार की स्थिति पर कोई फर्क नहीं पड़ने जा रहा। इसके बावजूद दोनों ही पार्टियां सिर-धड़ की बाज़ी लगाए हुए हैं, क्योंकि इसे ‘गढ़’ पर कब्जे और सरकार की नीतियों पर जनादेश की तरह देखा जा रहा है। अब इस रस्साकशी में बाज़ी किसके हाथ लगती है, यह तो 10 नवंबर को ही पता चलेगा।