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agriculture law in punjab

पंजाब द्वारा पारित नए कृषि कानूनों की पड़ताल – राजेन्द्र चौधरी

Posted on October 25, 2020October 29, 2020 by अविनाश सैनी (संपादक)

केन्द्रीय सरकार द्वारा हाल ही में पारित कृषि कानूनों का बड़े पैमाने पर विरोध हो रहा है। ये विरोध मूलतया उचित है पर अधूरा है। इस अधूरे विरोध का एक स्पष्ट उदहारण 20 अक्टूबर को पंजाब विधानसभा द्वारा नए केन्द्रीय कृषि कानूनों में संशोधन हेतू पारित बिल हैं। देर सवेर अन्य कांग्रेस शासित राज्य भी संभवतया ऐसे कानून पारित करें। इसलिए पंजाब द्वारा पारित कानूनों की समीक्षा ज़रूरी है। इन का मुख्य प्रावधान है न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम दाम पर खरीद को गैरकानूनी घोषित करना। बड़े पैमाने पर किसान संगठनों की भी यही मांग थी, पर इन कानूनों में यह आश्वासन नहीं है कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद सुनिश्चित करेगी।

अगर पंजाब विधानसभा द्वारा पारित कानून अपने वर्तमान स्वरूप में राष्ट्रपति की अनुमति के बाद, जिस पर संशय है, कड़ाई से लागू भी हो जाते हैं तो इस से यह सुनिश्चित नहीं होगा कि किसान को न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलेगा। बल्कि इस का प्रभाव यह होगा (अगर कानून का कड़ाई से पालन होता है) कि काफी सारे किसानों की फसल बिकेगी ही नहीं। अब व्यापारी इस बात के लिए तो बाध्य होगा कि अगर वह किसान की उपज खरीदे तो न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम पर न खरीदे, पर वह खरीदने के लिए बाध्य नहीं होगा और न ही सरकार खरीदने को बाध्य है। कुल मिला कर इस का वही हश्र होने वाला है जो मान्यता प्राप्त निजी स्कूलों और कालेजों में होता है। कर्मचारी हस्ताक्षर तो कानूनी रूप से देय वेतन पर करता है। उस के बैंक खाते में भी यही वेतन आता है। पर वास्तव में उसे वेतन मिलता बहुत कम है। तभी तो लोग निजी कालेज की नौकरी छोड़ कर सरकारी स्कूल की नौकरी करते हैं। अगर सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदी नहीं करती तो अब किसान को भी यही करना पड़ेगा; कम दाम ले कर कहना पड़ेगा कि पूरा दाम मिला है।

यह कोई चूक नहीं है। पंजाब सरकार द्वारा जारी प्रेस नोट के अनुसार, विधानसभा में बहस के दौरान विपक्ष द्वारा सरकार द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद का आश्वासन देने की मांग पर न केवल पंजाब सरकार ने इस को ख़ारिज कर दिया अपितु इस को अव्यवहारिक भी बताया। जब सरकार ही न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीददारी के आश्वासन को अव्यवहारिक मानती है, तो फिर न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम पर खरीददारी पर सज़ा के प्रावधान का क्या अर्थ रह जाता है? और जब ‘किसानों की हितैषी’ सरकारें यह सुनिश्चित करने को तैयार नहीं हैं कि किसान को न्यूनतम समर्थन मूल्य मिले, तो फिर न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा करने का क्या अर्थ है?

यह प्रश्न पंजाब द्वारा पारित किए गए कृषि कानूनों के एक अन्य प्रावधान के सन्दर्भ में महत्वपूर्ण हो जाता है। पंजाब द्वारा पारित कानून के अनुसार न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम दाम पर खरीदी पर सज़ा का प्रावधान केवल गेहूं एवं धान की खरीद पर लागू होगा न कि सब फसलों पर (नोट: इन कानूनों का मूल पाठ बहुत प्रयास करने के बावजूद पंजाब विधानसभा या पंजाब सरकार की वेबसाईट पर उपलब्ध नहीं हो पाया, पर सरकारी प्रेस नोट में केवल गेहूं एवं धान का ज़िक्र है)। इस प्रावधान से दो बातें साबित हो जाती हैं – एक तो मोदी सरकार की तरह पंजाब सरकार का किसानों के हितों की रक्षा का दावा भी खोखला है। गन्ने के अलावा 22 फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा बरसों से की जा रही है। ऐसे में, केवल गेहूं एवं धान की न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम पर खरीदी पर सज़ा क्यों, बाकी पर क्यों नहीं? इस का स्पष्ट अर्थ है कि बाकी फसल बोने वाले किसानों की सरकार को कोई चिंता नहीं है। इस के अलावा यह सवाल इसलिए भी महत्पूर्ण है कि केंद्र से ले कर राज्य सरकारें, आज नहीं, दशकों से हरियाणा-पंजाब में फसल विविधिकरण की ज़रूरत को रेखांकित कर रही हैं। किसानों की आलोचना की जाती है कि वे केवल धान-गेहूं उगा कर राज्य की मिट्टी, पानी और पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रहे हैं। परंतु अगर सरकार स्वयं ही न्यूनतम समर्थन मूल्य दिलवाने के अपने औपचारिक वायदों को केवल गेहूं-धान तक सीमित कर रही है, तो किसान कैसे गेहूं-धान को छोड़कर दूसरी फसलों को उगाएंगे?

पंजाब सरकार ने केन्द्रीय अनुबंध खेती कानून में भी संशोधन कर के न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम दाम पर खरीदी को गैरकानूनी घोषित किया है। अधिकांश किसान संगठनों की भी यही मांग थी। कृषि कानूनों से सम्बन्धी सारा विमर्श न्यूनतम समर्थन मूल्य के इर्दगिर्द सीमित हो गया है। इस गहमागहमी में यह बात नज़रंदाज़ कर दी गई है कि अनुबंध खेती कानून में न केवल बिक्री के सौदे का प्रावधान है अपितु ‘सभी किस्म के कृषि कार्यों’ को शामिल किया गया है। इस तरह से इस कानून ने परोक्ष रूप में कम्पनियों द्वारा किसान से ज़मीन लेकर खुद खेती करने की राह भी खोल दी है। अभी तक यह होता है कि कुनबे में जो भी परिवार गाँव में रहता था, वह आम तौर पर पूरे कुनबे की ज़मीन बोता है और आपसी रजामंदी से अनुपस्थित हिस्सेदारों को कुछ हिस्सा या पैसा दे देता है। इस तरह से 2-3 एकड़ का मलिक किसान 8-10 एकड़ पर खेती कर के अपना गुज़ारा चला लेता है। अब अनुपस्थित ज़मीन मालिक अपने कुनबे या गाँव के पड़ोसियों को ज़मीन बुआई के लिए न देकर कम्पनियों को देने लग जाएंगे। शुरू में ये कम्पनियां अच्छे पैसे भी देंगी, जैसे अमेज़न, फिल्पकार्ट, जियो जैसी कम्पनियां शुरू में हज़ारों हज़ार करोड़ का नुकसान सहन कर के भी सस्ते दाम पर सामान बेचती रही हैं। कम्पनियां ये घाटा परोपकार की भावना से नहीं सहती। न घाटे में चलने वाली इन कम्पनियों में भी अरबों का निवेश करने वाले परोपकार की भावना से ऐसा करते हैं। यह घाटा बाज़ार पर कब्ज़ा करने की नियत से सहा जाता है। एक बार विशालकाय कम्पनियों की पकड़ खेती पर हो गई, तो फिर किसानों को ठेके के वे भाव भी नहीं मिलेंगे जो आज मिलते हैं। इसलिए न्यूनतम समर्थन मूल्य का सवाल तो महत्वपूर्ण है, पर खतरा केवल इतना नहीं है। दाव पर केवल खेती-किसानी नहीं, देश की अन्न सुरक्षा एवं पूरी अर्थव्यवस्था है।

किसान हितैषी होने के पंजाब के दावे इसलिए भी खोखले नज़र आते हैं क्योंकि इस में एपीएमसी मंडी सुधार के लिए कोई कदम नहीं उठाया गया। कम से कम इतना तो किया ही जाना चाहिए कि मंडी कमेटी के नियमित चुनाव हों (जैसे कि कानूनी प्रावधान हैं) और वह किसानों के प्रति जवाबदेह हो। अगर बाकी विरोधी दलों की सरकारें भी पंजाब जैसे लचर कानून पास करती हैं, तो यह महज लीपापोती ही होगी। न तो इस से किसानों का भला होने वाला है और न ही मोदी विरोध प्रभावी होगा।

(लेखक महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय, रोहतक में अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर रहे हैं और स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के बाद जैविक खेती के प्रोत्साहन की दिशा में काम कर रहे हैं।)

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