~सुरेंद्र पाल सिंह
मानंस भये जहांन मैं, ने सगरे कहीं जांन।
आदम पाछै आदमी, हेंदु मुसलमांन ।। 14 ।।
(स्त्रोत : कायम खाँ रासा)
श्री एच ए बरारी सन 1988-90 के दौरान हरियाणा के राज्यपाल रहे हैं। उन्ही दिनों उन्होंने पूरे राज्य का व्यापक भ्रमण करते हुए अलग अलग स्थानों के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व को रेखांकित करते हुए कुछ नोट्स बनाए और उनको संकलित करते हुए एक पुस्तक का रूप दिया गया जिसका शीर्षक है ‘A Governor’s Tryst with Haryana’।
हरियाणा के बारे में इस रोचक पुस्तक में हिसार के इतिहास का ज़िक्र करते हुए उनके लेख के एक उद्धरण ने मुझमें विशेष रूप से उत्सुकता पैदा की, जिसका हिंदी में अनुवाद इस प्रकार से है:

“एक फौजदार सैयद नासिर ने जो हिसार का नवाब था पृथ्वीराज चौहान के एक वंशज को पकड़ कर उसे मुसलमान बनाया और उसका नाम कायम खाँ रख दिया गया। सैयद नासिर की मृत्यु के बाद कायम खाँ हिसार का नवाब बना और दिल्ली के सुल्तान के दरबार में ऊँचा रुतबा हासिल किया। कायम खाँ के उत्तराधिकारी कायमखानी कहलाए जाने लगे, जो मुसलमान थे लेकिन पहले राजपूत हिन्दू थे और पृथ्वीराज चौहान के वंशज थे। बगल के राजस्थान में अनेकों कायमखानी हैं”।
इस प्रकरण को पढ़ने के बाद कुछ जिज्ञासाऐं उठना स्वभाविक था और कुछ अधिक जानने के प्रयास में अजमेर स्थित हज़रत निजामुद्दीन चिश्ती की दरगाह से ‘हिन्दल वली ग़रीब नवाज़’ शीर्षक से एक पुस्तिका में पृथ्वीराज चौहान के वंशजों के बारे कुछ लिखा हुआ मिला, जो इस प्रकार से है:
“अब सुल्तान (मुहम्मद गौरी) ने अजमेर का रुख किया। रास्ते में कोई मुकाबला नहीं हुआ बल्कि मारे गए राजाओं के बेटों ने सुल्तान का शानदार इस्तक़बाल किया और उसकी शरण में आ गए। सुल्तान ने अजमेर पहुंच कर यहाँ की हुकूमत पृथ्वीराज के एक बेटे कोला को दी और उससे वफ़ादारी का हलफ़ लिया। “
इसी पुस्तिका में थोड़ा आगे लिखा है:
“एक राजा हरिराज ने अजमेर से पृथ्वीराज के बेटे को निकाल बाहर किया। उसने कुतुबुद्दीन ऐबक से फ़रियाद की। कुतुबुद्दीन ने राजा हरिराज पर चढ़ाई करके उसको क़त्ल किया और कोला फिर अजमेर का राजा बन गया…..”।
और खोजबीन के बाद नियामत खाँ कायमखानी द्वारा लिखी गई और डॉ. रतन लाल मिश्र द्वारा हिंदी में अनुदित पुस्तक ‘कायमखाँ रासा” जोधपुर से खरीदी गई तो इसे पढ़ कर तत्कालीन सामाजिक-राजनीतिक जीवन के एक विशेष डायनामिक्स को ऐतिहासिक रूप से जानने समझने का मौका मिला जिसे आपसे यहां साझा किया जा रहा है।
पुस्तक और इसके लेखक के बारे में:
कायमखाँ रासा एक ऐतिहासिक काव्य है जिसके रचनाकार कविजान उर्फ नियामत खाँ कायमखानी है। कवि का रचनाकाल सत्रहवीं सदी का उत्तरार्द्ध तथा अट्ठारहवीं सदी का पूर्वार्द्ध है। जानकवि द्वारा लिखित 76 रचनाएँ उपलब्ध हैं जिनमें रत्नावली, लैला मजनू, कामलता आदि चरित काव्य, बारहमासा, षटऋतुबरवा, वियोगसागर आदि मुक्तक श्रृंगार वर्णन काव्य, सीखग्रंथ, वर्णनामा आदि उपदेशात्मक काव्य और कवि वल्लभ, कामलता, रसमंजरी आदि अनेकों अन्य रचनाएँ हैं।
‘कायमखानी रासा’ में कायमखानी नवाबों का इतिहास वर्णित है। इसके अतिरिक्त इस काव्य में दिल्ली से सम्बंधित सल्तनत पीरियड एवं मुग़ल पीरियड के अनेक अज्ञात तथ्यों का उद्घाटन किया गया है।
कायमखानी पूर्व में चौहान राजपूत थे और मुसलमान बनने के बाद भी उनके अधिकांश रीति रिवाज राजपूतों वाले ही थे तथा धर्मपरिवर्तन के बाद भी उनके विवाह सम्बन्ध राजपूत जाति में होते रहे। कायमखानी वंश के प्रवर्तक कायमखाँ की सातों पत्नियाँ हिन्दू राजपूत थी। उनकी अधिकतर प्रजा हिन्दू थी जिनकी भावनाओं की वे कद्र करते थे और उनके राज्य में गौ हत्या निषिद्ध थी।
कायमखाँ रासा में तुग़लक़, सैयद, लोदी, और सूरी सुल्तानों और मुग़ल बादशाहों पर पर्याप्त सामग्री है। कायमखानी परिवार के वैवाहिक संबंध लोदी, सूरी, मुग़ल, राजपूत खानदानों से रहे हैं। इस काव्य में अनेक अतिश्योक्तिपूर्ण वर्णन होने के बावजूद अनेक दिलचस्प ऐतिहासिक घटनाओं का ज़िक्र है जो अन्यथा उपलब्ध नहीं हैं।
इस लेख का उद्देश्य तत्कालीन सामाजिक- राजनीतिक जीवन के उन पहलुओं को उजागर करना है जो समकालीन वातावरण में भी प्रसांगिक हैं।
कौन था कायमखाँ :
“ददरेवा (गुग्गा पीर वाला) का कुँवर कर्मचंद एकबार शिकार खेलते हुए भटक कर दूर जा निकला। वह थक कर एक वृक्ष की छाया में सो गया। अन्य वृक्षों की छाया ढल गई पर उस वृक्ष की छाया यथावत बनी रही। उसी समय सुल्तान फ़िरोजशाह तुग़लक शिकार खेलते हुए उधर आ निकला। वह यह करामात देखकर कर्मचंद को करामाती पुरुष मान कर साथ ले गया। कालांतर में उसे इस्लाम की तालीम देकर मुसलमान धर्म में दीक्षित किया और अपना बड़ा सरदार बनाया।”
पुस्तक में जानकवि आदम से लेकर मनुष्य पीढ़ियों का वर्णन करते हुए राहु-रावण-धुँधमार-मारीच-जमदग्नि-परशुराम-बच्छ-चाइ-चौहान की पिता- पुत्र श्रृंखला बताते हुए चौहान गोत्र की उत्पत्ति के बारे में बताता है। इसके पश्चात चौहान गोत्र को कल्पवृक्ष के समान बताते हुए उसकी दर्जनों शाखाओं की गिनती की जाती है, यथा देवड़े, चाहिल, मोहिल, गोधे, गूंदल, सिसोदिये, हाले, झाले, उमट, खीची, छोकर आदि आदि।
खैर, राजा जेवर चौहान के चार पुत्र हुए- गुगा, वैरसी, सेस और धरह। गुगा के पुत्र का नाम नानिग था। उधर वैरसी की शाखा से उदयराज-जसराज-केशोराय- बीजैराज- पदमसी की पीढ़ियों से होते हुए पदमसी का बेटा पृथ्वीराज हुआ।
इस प्रकार से गुगा से करीब 15-16 पीढीयों के बाद मोटेराव हुआ जिसके चार पुत्र थे, जिनमें से करमचंद का मुस्लिम नाम कायमखाँ हो गया। एक पुत्र जगमाल को छोड़ के बाकी दो पुत्र जैनदी और सदरदी भी मुसलमान हो गए थे।
सैयद नासिर ने कायमखाँ को अपने 12 पुत्रों के साथ पढ़ाया और उसकी लियाकत देखते हुए उसे ही अपना वारिस घोषित किया। उसकी मृत्यु के बाद सुल्तान फिरोजशाह ने कायमखाँ को मनसब दी और जब सुल्तान लड़ने के लिए ठट्ठा गया तो पीछे से राजकाज की बागडोर कायमखाँ को संभालने को कहा गया। इसी दौरान कायमखाँ ने मंगोलों के आक्रमण का कड़ा मुकाबला करते हुए उन्हें हराया। फिरोजशाह की तीसरी पीढ़ी से सुल्तान नसीरखाँ निःसंतान मरा तो एक ग़ुलाम मल्लूखाँ ने कायमखाँ के विरोध के बावजूद राजकाज संभाला। इसी समय कायमखाँ ने हिसार – हांसी के नवाब के नाते दूनपुर, रिणी, भटनेर, भादरा, गरानो, कोठी, बजवारा, कालपी, इटावा, उज्जैन, धार, और इनके बीच के छोटे शासकों पर विजय प्राप्त कर ली थी।
सन 1398 में तैमूर ने दिल्ली पर हमला किया और मल्लू खाँ को मारके ख़िज़्रखाँ को सुल्तान बना दिया गया। ख़िज़्र खाँ ने झज्जर में पैदा हुए लाहौर के फौजदार मोजदीन को कायमखाँ से बड़ी फौज लेकर लड़ने को भेजा। उस भयंकर लड़ाई में कायमखाँ की जीत हुई। आखिर, मुल्तान में ख़िज़्र खाँ और कायमखाँ में सुलह हुई और उन्होंने मिलकर राठौड़ राव चूड़ा को मारके नागौर को अपने अधीन कर लिया। कायमखाँ ने ख़िज़्र खाँ को फिर से दिल्ली पर कब्ज़ा करने में विशेष मदद की लेकिन आपसी मन मुटाव बना रहा। पिचानवे साल की उम्र में कायमखाँ की मृत्यु हुई। उसके पाँच पुत्र थे। इसी बीच दिल्ली में अनेकों सुल्तान थोड़े थोड़े समय के लिए आए और गए लेकिन कायमखानी अपना स्वतन्त्र वजूद रखते हुए अनेक इलाकों में फैलते गए।
आखिर बहलोल लोदी (1451-1489) से उनके मधुर सम्बंध बने और उन्होंने मिल कर रणथम्भौर पर जीत हासिल की। उसके बाद से लेकर लगातार वे मुग़ल बादशाहों के खासमखास रहे।
दिल्ली के सुल्तानों से अनबन रहते उन्होंने हिसार छोड़कर फतेहपुर (शेखावाटी) बसाया। सन 1441 में एक ही दिन में फतेहखाँ ने फतेहपुर में छः किलों की नीवं रखी थी। कायमखाँ के बेटे इख़्तियार खाँ ने हरियाणा-राजस्थान सीमा पर ढोसी के पहाड़ पर किला बनाया और आमेर तथा अमरसर के राजा उसे कर देते थे।
- कायमखानियों के पास झाड़ौद पट्टी की नवाबी सन 1395 से 1725 तक,
- झुंझनु की सन 1444 से 1729 तक,
- बड़वासी की सन 1420 से 1729 तक,
- केड़ की सन 1441 से 1721 तक,
- चरखी दादरी की सन 1351 से 1440 तक,
- और हांसी- हिसार में 1448 तक रहने के बाद सन 1449 से 1730 तक फतेहपुर (शेखावाटी) की इनके पास एक बड़ी नवाबी थी.
बहलोल लोदी की बेटी झुंझनू के नवाब से ब्याही गई थी और इसी प्रकार राजपूतों और कायमखानियों के बीच विवाह संबधों के अनेक दृष्टांत इस पुस्तक में वर्णित हैं.
सुल्तान बहलोल लोदी के साथ रणथम्भोर की जीत, उससे पहले राजस्थान के भिन्न भिन्न राजाओं से लड़ाई में जीतना, मुग़ल बादशाहों की तरफ़ से कभी दक्कन में, पहाड़ी राजाओं से, मेवाड़, भिवानी, नागौर, मेवात, पेशावर, बल्ख, काबुल, कसूर, ठट्ठा आदि इलाक़ों पर बहादुरी दिखाने और मौत को गले लगाने में कायमखानियों ने अपना नाम कमाया। नवाब अलफ खाँ ने पहाड़ी राजाओं से लड़ते हुए अपनी जान गँवाई और उसका वारिस दौलतखाँ चौदह सालों तक नगरकोट (कांगड़ा) का शाहजहाँ की तरफ़ से दीवान रहा।
आज एक अच्छी खासी संख्या में कायमखानी परिवार राजस्थान में रहते हैं। वे अपने आप को कायमखानी चौहान कहलाने में गर्व महसूस करते हैं और उनके रीति रिवाज आज भी हिन्दू राजपूतों जैसे हैं। उनके गोत्र और उपगोत्र की व्यवस्था अत्यन्त दिलचस्प है। उदाहरण के लिए झाड़ौद पट्टी वालों का मुख्य गोत्र जैनाण है (नवाब जैनुदिन खाँ के नाम पर) और उपगोत्र मालवाण, मठवाण, जलवाण आदि हैं। फतेहपुर वालों का मुख्य गोत्र खानी है (नवाब कायमखाँ के नाम पर) और उपगोत्र उमरखानी, समरथखानी, हाथीखानी, लालखानी आदि हैं। झूंझनू वालों का मुख्य गोत्र खानजादा और उपगोत्र कबीरखानी, मीरखानी, हथियारखानी, जमालखानी आदि है। बड़वासी वालों का मुख्य गोत्र एलमाण, मुन्याण, अहमदाण और उपगोत्र निवाई के, बप्पेरे के, चेलासी के, कोलसी के आदि। केड़ वालों का मुख्य गोत्र जबवाण है(नवाब जबरुद्दीन खाँ के नाम पर) और उपगोत्र मुज्जफरखानी, हमीदखानी, फतनाण खानी आदि है।
अन्त में, इस लेख को पढ़ते हुए पाठकों के मन में एक स्वाभाविक सा सवाल उठ सकता है कि इसे लिखने की क्या आवश्यकता थी? आज हम ऐसे दौर से गुज़र रहे हैं जब इतिहास का वृतान्त एकपक्षीय और दुर्भावनापूर्ण तरीके से करते हुए एक बनावटी इतिहास और समाज हमें परोसा जा रहा है। ऐसे में इतिहास के वे अध्याय जो साझी संस्कृति के उदाहरण हैं और भारतीय समाज की विविधता को उज़ागर करते हैं उनका ज़िक्र करना आवश्यक हो जाता है। सामाजिक- राजनीतिक डायनामिक्स को ऐतिहासिक रूप में बेहतर समझने के लिए भी इतिहास के ऐसे पन्ने खोलना जरूरी है।