
पांशकुड़ा, पश्चिम बंगाल। 13 साल का एक बच्चा। सातवीं कक्षा में पढ़ता था। नाम था — कृष्णेंदु दास। वो अब इस दुनिया में नहीं है।
एक चिप्स के पैकेट ने उससे सब कुछ छीन लिया — उसका आत्मसम्मान, उसका विश्वास, उसका बचपन… और अंत में उसका जीवन।
23 मई 2025 को यह घटना सुर्खियों में आई। लेकिन असल में यह उस दिन की कहानी नहीं है — यह हमारे समाज की उस सोच की कहानी है, जो बिना सुने, बिना समझे, सिर्फ दोषी ठहराने में यकीन रखती है।
कृष्णेंदु पर आरोप लगा कि उसने एक मिठाई की दुकान से तीन चिप्स के पैकेट चुराए। दुकानदार शुभंकर दीक्षित — जो एक सिविक वॉलंटियर भी है — ने बिना कुछ सोचे-समझे उसे सरेआम थप्पड़ मारे, उठक-बैठक करवाई और लोगों के सामने बेइज्जत किया।
उसका अपराध? चिप्स के खाली पैकेट उठाना — जो सड़क पर गिरे हुए थे।
उसका सबूत? CCTV फुटेज।
लेकिन तब तक देर हो चुकी थी।
घर लौटने पर माँ ने भी उसकी बात नहीं सुनी। गुस्से और शर्म के मिले-जुले भाव में उसे डांटा, थप्पड़ मारा।
कृष्णेंदु टूट चुका था।
उसने कीटनाशक पी लिया।
अगले दिन उसकी मौत हो गई।
और जाते-जाते वो एक छोटा सा कागज़ छोड़ गया — एक सुसाइड नोट। लिखा था:
“मां, मैंने चिप्स नहीं चुराए। मुझे सड़क पर पड़े मिले थे। मैंने चोरी नहीं की।”
बस इतना ही।
कृष्णेंदु की कहानी सिर्फ एक आत्महत्या नहीं है — यह एक समाज के असंवेदनशील होने की कहानी है। यह उस पल की तस्वीर है जब एक बच्चा चुप हो जाता है क्योंकि उसके अपने भी उसकी बात नहीं सुनते।
हमारे यहां ‘सबके सामने शर्मिंदा कर देना’ अब सज़ा नहीं, आदत बन चुकी है। स्कूल में, घर में, बाज़ार में — बच्चे जब भी कोई गलती करते हैं, तो उन्हें समझाने के बजाय ‘सुधारने’ की कोशिश की जाती है — डराकर, दबाकर, और तोड़कर।
पर क्या कोई बच्चा अपमान से सुधरता है? या वो बस अंदर ही अंदर बुझता जाता है?
कृष्णेंदु की मौत हम सबके लिए एक आईना है। एक ऐसा आईना जिसमें हमें अपना चेहरा देखना चाहिए — खासकर तब, जब हम किसी बच्चे से उसकी बात पूछे बिना उसे दोषी ठहरा देते हैं।
माता-पिता को, शिक्षकों को, और समाज को यह समझना होगा कि बच्चे केवल अनुशासन नहीं, समझदारी भी चाहते हैं। हर बार सज़ा ही हल नहीं होती — कई बार एक गले लगाना ज़िंदगी बचा सकता है।
आज शुभंकर दीक्षित फरार है। पुलिस ने केवल “अप्राकृतिक मृत्यु” का मामला दर्ज किया है। किसी ने अभी तक कोई शिकायत नहीं की है।
पर कृष्णेंदु की मौत सिर्फ एक केस फाइल नहीं है। यह एक चेतावनी है।
अगर अब भी हम नहीं चेते,
अगर अब भी हम बच्चों को नहीं सुना,
अगर अब भी हम शर्मिंदगी को सज़ा मानते रहे —
तो शायद अगला कृष्णेंदु हमारे ही घर में होगा।
और तब उसकी चुप्पी हमारी सबसे ऊँची चीख बन जाएगी।
“मैंने चोरी नहीं की…”
ये शब्द हमारे ज़मीर को तब तक काटते रहेंगे, जब तक हम बदल नहीं जाते।
(Dr. Satish Arya की वाल से साभार)