(कवयित्री – मीनू हुड्डा)
अक्सर याद आती है मेरे गाँव की साँझ,
सुरीली साँझ, सुरमई साँझ।
जैसे अलादीन के चिराग़ से जिन्न निकलता था,
मेरे गाँव की साँझ से संगीत उपजता था।
कुलदेव का महिमा-मंडन करते जल और फूल,
गोधूलि में कच्चे रास्तों पर उड़- उड़ जाती धूल,
घोले बैलों की घंटियों की टन- टन,
नयी नवेली चूड़ियों की खन-खन,
बतियाती पाजेबों की छम-छम,
गागर के पानी की झम-झम,
छज्जों के कबूतरों की गुटरगूँ,
व बाग़ों के मोरों की पीहू-पीहू।
इठलाती साँझ ज़रा गहराती,
संगीत को दूसरे सुर में ले जाती।
कीट पतंगों की भीं-भीं, चिड़ियों की चीं- चीं,
कुत्तों की भौं-भौं और दादा जी की खौं-खौं,
घरवालों पर ख़ासा क़हर बरपाती,
सुगम संगीत में विविधता ले आती।
फिर लालटेनों और चूल्हों से साँझ जगमगाती,
पूरे गाँव में मानों म्यूज़िकल नाइट हो जाती।
खूँटियों और मुँडेरों पर छिड़ जाती तानें,
लखमीचंद और मेहर सिंह की ज़ुबानें,
हरिश्चंद्र, अंजना-पवन की कहानियाँ,
भगत सिंह सरीखे वीरों की कुर्बानियाँ।
अंत में ‘सुनो-सुनो-सुनो’ एक मुनादी होती,
संगीत छितराता, मदमस्त साँझ सो जाती।
बिखर जाता असीम शांति का एहसास,
और नटखट चाँद, भर कर गहरा श्वास,
कहता-
कल साँझ फिर आएगी ‘साँझ’।
(लेखिका एफटीआई पूना की ग्रेजुएट है और अभिनय व शिक्षण के क्षेत्र में सक्रिय है)