मेवात (मेव समुदाय) के राजनीतिक इतिहास में भी साम्प्रदायिकता नहीं झलकती। जिआउद्दीन बरनी ने 13वीं शदी की घटनाओं के आधार पर लिखा कि Balban (बलबन) और Allauddin khilji (अलाउद्दीन खिलजी) जैसे ताकतवर सुल्तान भी मेवों पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित करने में असफल रहे।
डॉ. सूरजभान भारद्वाज और डॉ. महाबीर जागलान
देश की राजधानी दिल्ली के समीप तीन प्रांतों, हरियाणा, राजस्थान व उत्तर प्रदेश में फैला मेवात क्षेत्र एक सांझी संस्कृति की पहचान रखता है। भारत के विभाजन के समय जब देश के अनेक हिस्से सांप्रदायिक हिंसा से ग्रस्त थे तब भी मुस्लिम बहुल ये इलाका सांप्रदायिक दंगों से मुक्त था। जब मुस्लिम लीग के बहकावे में कुछ लोग पाकिस्तान की ओर पलायन कर रहे थे तो इस इलाके के एक जाने माने नेता चौधरी मोहम्मद यासीन खान के आग्रह पर खुद गांधी जी मेवात के निवासियों से पाकिस्तान न जाने की अपील करने मेवात के एक गांव घासेड़ा पहुंच गए थे। इसके फलस्वरुप सरहद पार कर पाकिस्तान पहुंचे हज़ारों मेवाती वापिस भारत लौट आए। पाकिस्तान से उनके लौटने का एक कारण वहां की सांस्कृतिक कट्टरता और परिस्थिति में न ढल पाना भी माना जाता है।
आज़ादी के पिछले 75 साल में अनेक हिंद-मुस्लिम दंगे हुए, लेकिन बाबरी मस्जिद गिराने और 2002 की गुजरात हिंसा के बाद भी इस क्षेत्र में सांप्रदायिक दंगे नहीं हुए। अभी 31 जुलाई को नूह कस्बे के पास हुई कुछ धार्मिक शोभा यात्रियों और स्थानीय युवकों की टोलियों के बीच हुई हिंसक झड़पें भी सांप्रदायिक दंगे का रूप नहीं ले पाई, स्थानीय बहुसंख्यकों और अल्पसंख्यकों के बीच सामाजिक सौहार्द बना रहा। तो आखिर क्या वजह है कि मेवात अनेकों उकसावों और भड़काऊ बयानों के बावजूद सांप्रदायिक हिंसा से दूरी बनाए हुए है?
‘जाट का हिन्दू क्या और मेव का मुस्लमान क्या’, हरियाणा के ग्रामीण अंचल में यह कहावत आम है। इसका अर्थ यह है कि खेती और पशु पालन व्यवसाय से जुड़े ये कृषक समुदाय धर्म से सम्बद्ध होते हुए भी आमतौर पर संस्थागत धर्म के अनुपालन से परहेज करते रहे हैं। 1840-42 में जब मेवात में परिवार गणना की गई तो एक ब्रिटिश अधिकारी ने लिखा कि यहां एक-तिहाई परिवारों को यह पता ही नहीं कि वो मुस्लिम हैं या हिन्दू। ( Frasar, A. “Statistical Report of Zillah Gurgaon”, Lahore, 1846, p.14) मेव अपनी वंशावली चन्द्रवंशी राजपूतों से जोड़ते हैं। मेवात में सामाजिक समारोहों में स्थानीय बोली मे ‘ पान्डून को कड़ो’ गाया जाता रहा है जिसमें महाभारत के नायकों अर्जुन और भीम का उल्लेख अन्याय के खिलाफ लड़ने वाले यौद्धाओं के रूप में किया जाता था। मेव संस्कृति में न्याय और अन्याय से सम्बद्ध कला प्रस्तुतियों को विशेष महत्व दिया जाता रहा है। यहां अली बक्श से सांग, जिन्हें स्थानीय बोली में तमाशा बोला जाता था, बहुत लोकप्रिय रहे हैं। इनमें कृष्ण लीला और नल दमयंती के किस्से बहुत चाव से देखे जाते थे। इनमें कंस के अत्याचारों और श्री कृष्ण द्वारा उसके वध के मंचन बहुत जनप्रिय होते थे।
नहीं हैं धार्मिक संकीर्णता
मेव समाज धार्मिक संकीर्णता से दूर रहा है और 20वीं सदी तक इस पर इस्लामी तौर तरीकों का असर आंशिक ही रहा। इस सन्दर्भ में 1902 की एक घटना उल्लेखनीय है। भिवाड़ी और तिजारा के बीच बसे गांव टपुकडा में हनुमान जी का मेला लगता था। मेले में एक मुस्लिम बिसाती (दुकानदार) ने नमाज की आजान दी तो कुछ हिन्दू बिसातियों ने इस पर एतराज जताया। इस तकरार की खबर जब आसपास के गांवों में पहुंची तो कुछ मेव चौधरियों ने उस स्थान पर मस्जिद बनाने का फैसला लिया और वहां एक मकान 800 रुपए में ख़रीद कर उसके आहते में मस्जिद बनानी शुरू कर दी। इसके लिए उन्होंने हर घर से एक रुपया लेने का फैसला किया, लेकिन मेवों ने यह कहकर पैसे देने से इंकार कर दिया कि वे हनुमान जी के मेले स्थल पर मस्जिद नही बना सकते और वहां मस्जिद कभी नही बन पाई। बहुत लम्बे समय तक मेवों की शादी में निकाह की रस्म काजी करवाता था, लेकिन बाकी रस्में हिन्दू रीति रिवाजों के अनुसार होती थी। फसल उपज से जुड़े होली और दिवाली त्योहार मेव वैसे ही मनाते थे जैसे हिन्दू। खूटेटा कलां गांव में मेवों के पूर्वजों का रिकार्ड रखने वाले जग्गाओं ने बताया कि वहां एक मेव चौधरी दिवाली के दिन टोकरी में चांदी के सिक्के रखकर घर के बाहर बैठ जाता था और गांव में मुनादी करवा देता था कि जिन लोगो के पास चांदी के सिक्के नही हैं, वो आकर लक्ष्मी के दर्शन कर लें जिसे दोनों हिन्दू और मुसलमान शुभ मानते थे।
मेव समुदाय के राजनीतिक इतिहास में भी साम्प्रदायिकता नहीं झलकती। जिआउद्दीन बरनी ने 13वीं शदी की घटनाओं के आधार पर लिखा कि बलबन और अलाउद्दीन खिलजी जैसे ताकतवर सुल्तान भी मेवों पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित करने में असफल रहे। हसन खां मेवाती की सरदारी में मेव बाबर के खिलाफ पहले पानीपत में लड़ें और फिर खानवा की लड़ाई में। बाबर ने खानवा की लड़ाई से पहले हसन खां मेवाती को निष्पक्ष रहने के लिए अनेक प्रलोभन दिए लेकिन उसने राणा सांगा का साथ दिया और बाबर से लड़ते हुए मारा गया। अकबर ने सूझबूझ से मेवों को डाक व्यवस्था के माध्यम से प्रशासन से जोड़ा। भारत के पहले स्वत्रंता संग्राम 1857 में मेवों ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया तो उन्हें कुचलने के लिए सेना भेजी गई लेकिन वो भी मेवात पर नियंत्रण नही स्थापित कर पाए।
ब्रिटिश राजसत्ता के विरोध में यहां एक कहावत बहुत लोकप्रिय रही थी – “जाएगो रे, जाएगो फिरंगी तेरो राज ! तेरी अकल हो गई ख़राब” ! लगातार विरोध के कारण ब्रिटिश सरकार ने मेवों को आपराधिक जनजाति (क्रिमिनल ट्राइब ) भी घोषित कर दिया और उन पर जन्मजात अपराधी का ठप्पा लगा दिया। इसके बाबजूद भी वो वतन प्रेमी नागरिक बने रहे और इसका सबूत है 1947 में उनका धर्म के नाम पर देश के बंटवारे का विरोध और भारत में रहने का फैसला।
आज हरियाणा का मेवात क्षेत्र प्रदेश में ही नही, देश में सबसे पिछड़ा इलाका है। नीति आयोग ने 2018 में नूंह को पिछड़े जिलो की सूची में सबसे ऊपर रखा है। विकास के लगभग हर सूचक में नूंह जिला हरियाणा में सबसे पिछड़ा है। 2011 के आंकड़ों के अनुसार यहां सिंचाई के साधनों की कमी के कारण फसल उत्पादकता बहुत कम है तथा अन्य रोज़गार साधनों की कमी की वजह से लोंगो की पशुपालन पर निर्भरता बहुत अधिक है। पिछले कुछ वर्षो से गौरक्षा के नाम पर यहां मेव गौपालकों पर कई हमले हुए हैं जिससे यहां की ग्रामीण अर्थव्यवथा चरमरा गई है। वर्तमान में अनेकों सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समस्याओं से जूझता मेवात भी देश में सामुदायिक सहिष्णुता और भाई- चारे का मॉडल रहा है। खेती में पिछड़े होने के बावजूद मेवाती किसानों ने दिल्ली के आसपास 2020 और 2021 में चले किसान आन्दोलन में व्यापक और सक्रीय भागीदारी करके अपनी वर्गीय चेतना का प्रमाण दिया है। इसी वजह से हरियाणा के किसान भी साम्प्रदायिक भावनाओं को दरकिनार कर संकट में अपने मेवाती बंधुओं के साथ आन से खड़े हैं।
आज मेवात को साम्प्रदायिक ताकतों द्वारा हिंसा की तरफ धकेलने के साफ संकेत मिल रहे हैं। पंजाब एंड हरियाणा हाई कोर्ट ने भी प्रशासन की अल्पसंख्यकों के खिलाफ एक तरफ़ा गैरकानूनी कार्यवाई का स्वत: संज्ञान लिया है। संभव है कि जैसे हाल में नूंह में हुई हिंसा में देखने को मिली, कुछ मेव युवक भी अल्पसंख्यक साम्प्रदायिक धारणाओं से भ्रमित हो जाएं। राजधानी दिल्ली की नाक के नीचे और मिलेनियम सिटी गुरुग्राम की जड़ में बसा मेवात साम्प्रदायिक हिंसा का हॉटस्पॉट बनता है तो इस क्षेत्र में शांति से रह रहे मुसलमानों और हिन्दुओं के लिए ही नहीं, पूरे देश और वर्तमान विकास के मॉडल के लिए भी दुष्परिणाम होंगे।
गुरुग्राम में अनेकों बड़ी विदेशी कंपनियों के दफ्तर हैं और यह उत्तर भारत में विदेशी वित्तीय पूंजी का केंद्र है। कई विदेशी और देशी कम्पनियां दिल्ली-मुंबई एक्सप्रेसवे कॉरिडोर में पूंजी लगाने की इच्छुक होंगी जिसका एक हिस्सा मेवात में पड़ता है। क्या सामाजिक सौहार्द बिना किसी क्षेत्र में विकास संभव है?
(संपादन: पूजा मेहरोत्रा)
(साभार : The Print. लेखक डॉ. सूरजभान भारद्वाज, दिल्ली यूनिवर्सिटी के मोतीलाल नेहरु कॉलेज के पूर्व प्रिंसिपल हैं और डॉ. महाबीर जागलान, कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी में भूगोल विभाग के पूर्व प्रोफेसर हैं। उनका ट्विटर हैंडल @mahabirsj है। व्यक्त विचार निजी है।)