बिना आवाज़ के
एक आवाज़
बिना चेहरे के
एक चेहरा
बिना नज़रों के
दो आंखें
बिना एहसास के
जज़्बातों भरा
एक दिल।
ज़िन्दगी भर रहता है
हमारे आसपास
हमें कोसते हुए
बिना कसूर के
चुपचाप सजा भोगते हुए।
और हम
21वीं सदी के रोबोट
देख नहीं पाते
झीने से कपड़े की
सख्त दीवार के परे
पल-पल
दम तोड़ती संवेदना,
महसूस नहीं कर पाते
ज़िंदगी भर
अपनों के बीच
मुंह छुपाकर जीने की पीड़ा।
मात्र संवेदनहीनता नहीं
दुनिया की
आधी आबादी के अस्तित्व पर
यह सीधा सीधा निशाना है
घूंघट तो बस एक बहाना है।
– अविनाश सैनी