राज्यपाल और राज्य सरकार विवाद में सरकारों का पलड़ा रहा है भारी
राजस्थान में सचिन पायलट और मुख्यमंत्री गहलोत बीच चल रही सियासी जंग अब राज्य सरकार बनाम राज्यपाल हो गई है। गहलोत सरकार 31 जुलाई से ही विधानसभा का सत्र बुलाने पर अडिग है, लेकिन राज्यपाल से हरी झंडी नहीं मिल रही। कांग्रेस आरोप लगा रही है कि राज्यपाल दबाव में काम कर रहे हैं। वे कैबिनेट के प्रस्ताव को खारिज नहीं कर सकते। दूसरी ओर, राज्यपाल कहते हैं कि कोरोना महामारी के चलते जल्दबाज़ी में सत्र बुलाना ठीक नहीं है। सरकार को कम से कम 21 दिन का नोटिस देना चाहिए।
आपको बता दें कि यह कोई पहला मौका नहीं है, जब देश में राज्य सरकार और राज्यपाल के बीच विवाद गहराया है। आजादी के बाद से ही भारत में राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच कई बार टकराहट की स्थिति देखने को मिली है। बहुत बार राज्यपाल अपने फैसलों के कारण विवादों में भी रहे हैं।
तो आइए, बात करते हैं अलग-अलग राज्यों में, अलग-अलग समय पर राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच हुई तनातनी और राज्यपालों के विवादित फैसलों के बारे में –
कर्नाटक
80 के दशक में कर्नाटक का एक मामला काफी सुर्खियों में रहा था। वहां 1989 में राज्यपाल ने एक साल पुरानी राज्य सरकार को बर्खास्त कर दिया था, लेकिन 5 साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल के फैसले को पलटते हुए उसे असंवैधानिक करार दे दिया।
असल में 1988 में कर्नाटक में जनता दल की सरकार बनी थी और राज्य के मुख्यमंत्री थे एस आर बोम्मई। अप्रैल 1989 में उनकी पार्टी के कुछ विधायकों ने बगावत कर दी। इस की वजह से सरकार पर अल्पमत में होने का आरोप लगा। बोम्मई ने राज्यपाल पी वेंकट सुबैया से एक हफ्ते में विधानसभा का सत्र बुलाने और बहुमत साबित करने की इजाजत मांगी। लेकिन, राज्यपाल ने इसकी मंजूरी नहीं दी और केंद्र की कांग्रेस सरकार से राज्य सरकार को बर्खास्त करने की सिफारिश कर दी। इस तरह 21 अप्रैल, 1989 को बोम्मई सरकार बर्खास्त कर कर्नाटक में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया।
बोम्मई इस मामले को कर्नाटक उच्च न्यायालय में ले गए, जहां उन्हें कोई राहत नहीं मिली। न्यायालय ने राज्यपाल की भूमिका को सही माना। इसके बाद यह मामला सुप्रीम कोर्ट में गया। पांच साल तक चली सुनवाई के बाद 1994 में 9 जजों की बेंच ने राज्यपाल द्वारा सरकार को बर्खास्त करने के फैसले को गलत ठहराया। बेंच ने साफ कर दिया कि यदि किसी सरकार को बहुमत साबित करना हो या किसी को सरकार से समर्थन वापस लेना हो, तो इसके लिए विधानसभा में शक्ति परीक्षण ही इकलौता रास्ता है। कोर्ट ने यहां तक कह दिया कि राष्ट्रपति शासन का भी रिव्यू हो सकता है।
उत्तर प्रदेश
उत्तर प्रदेश के भी एक ऐसे विवाद की काफी चर्चा रही है, जिसमें बीजेपी सरकार को समर्थन दे रहे जगदंबिका पाल को राज्यपाल की मेहरबानी से महज एक दिन के लिए मुख्यमंत्री बनाने का मौका मिला था।
बात 1998 की है। यूपी में कल्याण सिंह के नेतृत्व में भाजपा की मिली-जुली सरकार थी और सूबे के गवर्नर थे रोमेश भंडारी। जगदंबिका पाल सरकार को समर्थन दे रहे थे। अचानक उन्होंने सरकार से समर्थन वापिस ले लिया और ऐलान कर दिया कि उनके पास विधायकों का बहुमत है। इसके बाद फरवरी 1998 में राज्यपाल रोमेश भंडारी ने कल्याण सिंह की सरकार को बर्खास्त कर दिया और रातों-रात जगदंबिका पाल को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी। राज्यपाल के इस फैसले का भारी विरोध हुआ। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इसके विरोध में राजधानी लखनऊ में आमरण अनशन शुरू कर दिया।
कल्याण सिंह ने इस फैसले को इलाहाबाद हाई कोर्ट में चुनौती दी और कोर्ट ने राज्यपाल के फैसले को असंवैधानिक करार दे दिया। इसके बाद मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। सुप्रीम कोर्ट ने फ्लोर टेस्ट का आदेश दिया। फ्लोर टेस्ट में कल्याण सिंह के पक्ष में 225 और पाल के पक्ष में 196 वोट पड़े और कल्याण सिंह फिर से मुख्यमंत्री बन गए।
बिहार
बिहार की बात करें तो वहां भी राज्यपाल बूटा सिंह ने विधानसभा को भंग कर राष्ट्रपति शासन की अनुशंसा कर दी थी। असल में, 2005 के बिहार विधानसभा चुनाव में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था। सभी एक दूसरे से जोड़तोड़ की कोशिश कर रहे थे। उस समय केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी और राज्यपाल थे बूटा सिंह।
उन्होंने 22 मई, 2005 को बिहार विधानसभा भंग कर दी और राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। राज्यपाल पर आरोप लगा कि उन्होंने जल्दबाज़ी में फैसला लिया है। इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई, जिस पर फैसला सुनाते हुए कोर्ट ने बूटा सिंह के फैसले को असंवैधानिक बताया। इसके बाद अक्टूबर-नवंबर 2005 में फिर से चुनाव हुआ, जिसमें एनडीए को पूर्ण बहुमत मिला और नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने।
अरुणाचल प्रदेश
अरुणाचल प्रदेश में भी एक बार राज्यपाल जेपी राजखोवा ने राज्य सरकार की अवहेलना करते हुए समय से पहले सत्र बुला लिया था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उनके इस फैसले को भी गलत बताया था।
जेपी राजखोवा 2015-2016 के दौरान अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल थे।
साल 2015 में वहां कांग्रेस की सरकार थी और मुख्यमंत्री थे नबाम तुकी। आज जो हालात राजस्थान में है, कुछ इसी तरह के हालात तब अरुणाचल प्रदेश में बन गए थे। कांग्रेस के 21 विधायकों ने बगावत कर दी थी। उस समय विधानसभा का शीतकालीन सत्र जनवरी 2016 में शुरू होना था, लेकिन राज्यपाल ने 9 दिसंबर 2015 को आदेश जारी कर शीतकालीन सत्र से एक महीना पहले, यानी 15 दिसंबर 2015 को ही सत्र बुला लिया। इस मौके पर विपक्षी विधायकों ने बागियों के साथ मिलकर मुख्यमंत्री तुकी और विधानसभा अध्यक्ष नाबम रेबिया को बर्खास्त कर दिया। तत्पश्चात कांग्रेस के 20 बागी विधायकों को भाजपा के 11 विधायकों ने समर्थन दिया और 9 फरवरी को कालिखो पुल प्रदेश के नए मुख्यमंत्री बन गए।
कांग्रेस इस मामले को सुप्रीम कोर्ट ले गई। सुप्रीम कोर्ट ने जुलाई 2016 में राज्यपाल के फैसले को गलत ठहराया और 9 दिसंबर 2015 से पहले की स्थिति बहाल करने का आदेश दिया। तब सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा था कि राज्यपाल अपनी मर्जी से कभी भी विधानसभा का सत्र नहीं बुला सकते।
उत्तराखंड:
और अंत में बात करते हैं उत्तराखंड की, जहां सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद कांग्रेस की सरकार बहाल हुई थी। साल 2016 में हरीश रावत प्रदेश के मुख्यमंत्री थे और राज्यपाल की जिम्मेदारी निभा रहे थे पूर्व आईपीएस अधिकारी कृष्णकांत पाल। तब विधानसभा के बजट सत्र के दौरान कांग्रेस के नौ विधायक बगावत करके भाजपा के साथ चले गए। 27 मार्च 2016 को स्पीकर ने इन विधायकों की सदस्यता रद्द कर दी। लेकिन राज्यपाल कृष्णकांत पाल ने कांग्रेस के विरोध के बावजूद राज्य में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश कर दी। इसके बाद मामला हाई कोर्ट पहुंचा और हाई कोर्ट ने राष्ट्रपति शासन हटाने का फैसला किया, तो केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई। सुप्रीम कोर्ट ने 10 मई 2016 को हरीश रावत को बहुमत साबित करने को कहा। साथ ही, सुप्रीम कोर्ट ने उन बागी 9 विधायकों पर फ्लोर टेस्ट के समय वोट देने पर रोक लगा दी। 10 मई को शक्ति परीक्षण हुआ और हरीश रावत फिर से मुख्यमंत्री बने।
अब देखना यह है कि राजस्थान में राज्यपाल क्या फैसला लेते हैं और उस फैसले का क्या नतीजा निकलता है।