मूल अंग्रेज़ी:
सलमान रशीद
हिन्दी भावानुवाद :
रमणीक मोहन
(भारत हो या पाकिस्तान, हम आम तौर पर अपनी विरासती इमारतों को सम्भालने के मामले में कमोबेश कमज़ोर ही हैं। पुरानी हवेलियाँ ढहती चली जाती हैं और इस तरफ़ किसी का भी ध्यान नहीं जाता। कितनी तसल्ली की बात होती है और कितनी ख़ुशी की, जब हमें कोई ऐसी हवेली देखने को मिलती है जिसे उस के मूल मालिक दशकों पहले छोड़ गए हों लेकिन जिन के हाथ वह आई है, वे उसे ज़रा भी नुक़्सान पहुँचाए बिना उस का पूरा-पूरा ध्यान रखें। पाकिस्तान में ऐसी ही एक हवेली की बात करता है यह लेख।
सलमान रशीद मूल रूप से यात्रा-वृत्तांतों के लेखक हैं और उन के इन वृत्तांतों की कई पुस्तकें छप चुकी हैं। उन्होंने इस वृत्तांत को मूल अंग्रेज़ी से हिंदी अनुवाद की शक्ल में छापे जाने के लिए ‘सारी दुनिया’ को बख़ुशी इजाज़त दी है।)
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बहावलनगर से 25 किलोमीटर उत्तर-पूर्व में कभी फ़ाज़िल्का को जाने वाले मुख्यमार्ग पर स्थित मिंचिनाबाद कोई मशहूर जगह नहीं है। लेकिन ग्रामीण पंजाब के बीचो-बीच स्थित इस नगर में एक बहुत ही ख़ूबसूरत हवेली है। 1930 के दशक में बनाई गई, महल नागर मल के नाम से जानी जाती ये हवेली बहुत पुरानी चाहे न हो मगर श्रेष्ठताऔर बेहतरीन सौंदर्यबोध का दावा तो यक़ीनन कर सकती है। दुनिया के इतिहास में आबादियों के इधर से उधर और उधर से इधर पलायन की सब से बड़ी घटनाओं में से एक जब 1947 में घटित हुई तो हवेली के असल मालिक नई सरहद के पार पूर्व की ओर पलायन कर गए। तभी से यह हवेली दूसरी तरफ़ से आए एक सुखेरा परिवार का घर बन गई थी।
परिवार में बड़े, दिलशाद हुसैन सुखेरा अब हवेली की दास्तान के रखवाले हैं। उन के मुताबिक़ इस का निर्माण 1930 के दशक में किसी वक़्त, दो भाइयों, नागर मल और भजन लाल ने किया था।
अगरवाल भाई, नागर मल और भजन लाल अच्छे रुतबे के व्यापारी थे और उन का व्यापार देश के बड़े हिस्से तक ही महदूद नहीं था बल्कि विदेश में दूर के व्यापार-केन्द्रों तक फैला था। सुखेरा कहते हैं कि इन अगरवाल भाइयों को विरासत में मिली दौलत 25 मिलियन (यानी दो करोड़ पचास लाख) रुपये से कम न रही होगी, जो उस वक़्त के हिसाब से एक शाहाना रक़म थी।
वे इतने दौलतमन्द तो थे ही कि किसी यूरोपीय वास्तुकार (आर्किटेक्ट) को या स्थानीय विशेषज्ञों में से चुने हुए उम्दा विशेषज्ञ को इस काम के लिए लगाते। मगर न तो इस हवेली के वास्तुकार के बारे में कोई जानकारी हासिल है और न ही इस अनमोल इमारत के निर्माण में लगी रक़म की कोई मालूमात है। सुखेरा ख़ानदान को भवन-निर्माण की कोई योजनाएँ या इस ख़ूबसूरत हवेली से सम्बद्ध कोई काग़ज़ात भी नहीं मिल पाए हैं। ये शायद 1947 के फ़सादी माहौल का शिकार हो गए होंगे।
हाँ, उन्हें यह ज़रूर पता है कि एक वक़्त था जब यह हवेली बड़े-बड़े मैदानों और खेती की ज़मीनों से घिरी हुई थी – मगर ये अब नहीं रहे और इन का स्थान नई इमारतों ने ले लिया है। दिलशाद हुसैन ने व्यस्त, चलती सड़क के पार इशारे करते हुए कहा कि जहाँ आज मस्जिद और दुकानों की कतार दिखाई दे रही है, वहाँ किसी ज़माने में अगरवाल परिवार के नौकरों के क्वार्टर और जनरेटर के लिए कमरा हुआ करते थे। हवेली को बिजली से रौशन करने के लिए पेट्रोल के दो जनरेटर रखने वाला परिवार यक़ीनन धनी रहा होगा।
कैसी है ये हवेली?
कम ऊँचाई की बाहरी दीवार और मुख्य-द्वार के पीछे, अतिथि-कक्षों की एक कतार की ओट में वो स्थान है जो कभी अगरवाल परिवार का निवास था। एक ऊँचे मेहराबी द्वार से हो कर हम हवेली के पहले खुले आंगन में पहुँचते हैं – यहीं से हमें उस उच्च सौंदर्यबोध का अन्दाज़ा होने लगता है जो हमें आगे जा कर देखने को मिलेगा। कुछ ही सीढ़ियाँ चढ़ कर संगमरमर की एक विशाल मेहराबदार चौखट के नीचे से हो कर इमारती लकड़ी के दरवाज़े से अन्दर जाते हुए हम अन्दरूनी आंगन तक पहुँचते हैं। इस समूची स्तम्भनुमा चौखट पर बहुतायत में अंगूरी बेलों और अन्य फूलदार वक्ररेखीय, घुमावदार सजावटी आवृत्तियों की उत्कृष्ट नक़्क़ाशी है। चाप के दोनों तरफ़, स्तम्भ वाले हिस्सों में ऊपर, बांसुरी बजाते श्री कृष्ण अपनी जानी-मानी मुद्रा में दिखाई देते हैं।
भीतर पहुँचने पर हम ख़ुद को करीब 9 हज़ार साल पहले शुरू हुई रिवायत की तर्ज़ पर एक चौकोर केन्द्रीय आंगन में पाते हैं। इस के चारों तरफ़ एक बरामदा है और बरामदे में पीछे लगते कमरे हैं। बरामदे की मेहराबें मुग़ल शैली में बनी हैं। इन पर फूलदार और वक्ररेखीय डिज़ाइनों का बहुत ही समृद्ध चित्रण है। प्रत्येक मेहराब के शिखर पर किसी इन्सान की छवि है – ये शायद अगरवाल परिवार के लोगों के चित्र होंगे। एक ओर जहाँ निचली मंज़िल बहुत ही सख़्ती से देसी लहजा और शैली प्रदर्शित करती है, वहीं ऊपरी मंज़िल इतालवी शैली का भरपूर आनन्द देती है।
करीब 200 किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में बहावलपुर के नवाब ने अपने भोग-विलास में इतालवी शैली की कई इमारतें बनवाई थीं। अगर अगरवाल परिवार ने किसी स्थानीय मिस्त्री को लगाया होगा तो वो ज़रूर राजधानी गया होगा – इतालवी विशेषताओं से वो बख़ूबी वाक़िफ़ था।
अगरवाल परिवार इस हवेली में कुल मिला कर करीब डेढ़ दशक तक ही रह पाया क्योंकि 1947 में वो वहाँ से पलायन कर गया था। बाद में महल नागर मल में सुखेरा परिवार रहने लग गया था, जिस ने इस हवेली की दास्तान को ज़िन्दा रखा है।
रिवायती तौर पर तो 1947 में इधर आ कर बसे लोगों के हाथों में आई जायदादों और इमारतों का ध्यान नहीं रखा जाता। वक़्त के साथ उन्हें टूटने-बिखरने दिया जाता है ताकि उन्हें बेचा जा सके और उन की जगह बदसूरत ‘प्लाज़ा’ बन जाएँ। लेकिन सुखेरा परिवार ने महल नागर मल की अच्छी देखभाल की है। किसी भी चीज़ को नुक़सान नहीं पहुँचा है, यहाँ तक कि बांसुरी बजाते कृष्ण की छोटी मूर्तियों या दीवार के चारों ओर छत के बिल्कुल नीचे हिन्दू पौराणिक कथाओं के दृश्य दर्शाती सजावटी पट्टियों को भी नहीं। 1947 के बाद से केवल एक बदलाव दिखाई देता है – बीच के आंगन को दो हिस्सों में बांटती हुई सीमेंट की एक दीवार है जिस का होना तब लाज़िमी हो गया जब बड़े सुखेरा की मृत्यु हो गई और मकान दिलशाद हुसैन और उन के भाई को विरासत में मिल गया। यह बहुत अच्छी बात है कि अब सुखेरा परिवार का निवास जिस इमारत में है, वह उस की कला और सौंदर्य के मूल्य के प्रति सचेत है।