बीमारी और वृद्धावस्था के बावजूद नहीं मिली जमानत
सारी दुनिया। यल्गार परिषद और माओवादियों से संबंध के आरोप में गिरफ्तार वयोवृद्ध मानवाधिकार कार्यकर्ता स्टेन स्वामी का 5 जुलाई को निधन हो गया। वे 84 साल के थे और यूएपीए व अन्य धाराओं के तहत न्यायिक हिरासत में थे। सन 1991 से आदिवासियों के अधिकारों के लिए संघर्षरत जेशुइट (ईसा मसीह की रॉयल कैथोलिक समाज का सदस्य) पादरी स्टेन स्वामी को 20 अक्टूबर 2020 को झारखंड से गिरफ्तार किया गया था। कई दिन से स्वास्थ्य संबंधी गंभीर समस्याओं के चलते उनका मुंबई के होली फैमिली हॉस्पिटल में इलाज चल रहा था। वे वेटिंलेटर पर थे।
हाई कोर्ट ने भी जताया दुःख
अस्पताल के अधिकारियों ने बंबई उच्च न्यायालय को स्टेन स्वामी के निधन की सूचना दी। उनके निधन पर हाई कोर्ट ने भी गहरा दुःख जताया। जस्टिस एसएस शिंदे और जस्टिस एनजे जामदार ने अपने शोक संदेश में कहा, “हम विनम्रता के साथ कहते हैं कि इस सूचना पर हमें खेद है। यह हमारे लिए बड़ा झटका है। हमने उन्हें उनकी पसंद के अस्पताल में भर्ती कराने का आदेश दिया था। परन्तु आज हमारे पास उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए शब्द नहीं हैं। हम, आप (अस्पताल) पूरी कोशिश के बावजूद उन्हें बचा नहीं सके।”
उनके वकील मिहिर देसाई ने भी कहा है कि उन्हें उच्च न्यायालय और निजी अस्पताल से कोई शिकायत नहीं है। उन्होंने कहा, “उच्च न्यायालय ने उनके लिए बेहतर इलाज सुनिश्चित करने के लिए सब कुछ किया और अस्पताल में बेहतरीन ह्रदय रोग विशेषज्ञ व अन्य विशेषज्ञों ने उनका इलाज किया। मेरी शिकायत सिर्फ तालोजा जेल अधीक्षक और एनआईए (मामले के अभियोजन एजेंसी) के खिलाफ है।”
दोस्त उठा रहे थे इलाज का खर्च
बता दें कि अदालत के 28 मई के आदेश के बाद से स्वामी का होली फैमिली हॉस्पिटल में इलाज चल रहा था। 29 जुलाई को पीठ ने स्वामी की चिकित्सीय आधार पर जमानत देने संबंधी याचिका पर सुनवाई को टालते हुए उन्हें अस्पताल में रहने को कहा था। निजी अस्पताल में उनके इलाज का खर्च उनके सहयोगी एवं मित्र उठा रहे थे।
मानवाधिकार आयोग को भी करना पड़ा हस्तक्षेप
पिछले हफ्ते, स्वामी ने अदालत में एक नई याचिका भी दायर कर गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम कानून (यूएपीए) की धारा 43डी (पांच) को चुनौती दी थी जो इस कानून के तहत आरोपी बनाए गए व्यक्ति की जमानत पर सख्त शर्तें लगाती है। मृत्यु से एक दिन पहले ही, 4 जुलाई को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने स्वामी की गंभीर स्वास्थ्य स्थिति का आरोप लगाने वाली एक शिकायत पर महाराष्ट्र सरकार को नोटिस जारी किया था। नोटिस में, एनएचआरसी ने स्वामी के मूलभूत मौलिक अधिकारों के संरक्षण एवं जीवनरक्षक उपाय के तहत उनके लिए उचित चिकित्सा देखभाल और उपचार सुनिश्चित करने का निर्देश दिया था।
जेल में बदइंतजामी की कई बार कर चुके थे शिकायत
गौरतलब है कि स्वामी और एल्गार मामले में उनके सह-आरोपी नवी मुंबई स्थित तालोजा जेल में विचाराधीन कैदी के रूप में बंद थे। उन्होंने कई बार जेल में अपर्याप्त स्वास्थ्य सुविधाओं और गंदगी की शिकायत की थी। उच्च न्यायलय में दायर अपनी याचिकाओं के अलावा मौखिक और लिखित बयानों में भी उन्होंने अनेक बार चिकित्सा सुविधा, समय से जांच कराने और स्वच्छता एवं शारीरिक दूरी सुनिश्चित करने को लेकर तालोजा जेल अधिकारियों द्वारा समुचित कदम न उठाने की शिकायत की थी। इसी वर्ष मई में उन्होंने उच्च न्यायालय की अवकाश पीठ को वीडियो कॉन्फ्रेंस के माध्यम से बताया था कि तालोजा जेल में उनका स्वास्थ्य लगातार गिर रहा है।
उस समय उन्होंने उच्च न्यायालय से अंतरिम जमानत देने का अनुरोध करते हुए कहा था कि अगर वहां चीजें ऐसी ही चलती रहीं तो वे ‘‘बहुत जल्द मर जाएंगे।” तब एनआईए ने न्यायालय के समक्ष हलफनामा दायर कर स्वामी की जमानत याचिका का विरोध किया था। इसने कहा था कि उनकी बीमारी के कोई “ठोस सबूत” नहीं हैं।
क्या आरोप थे?
एल्गार-परिषद मामले में स्वामी और अन्य सह-आरोपियों पर नेशनल इंवेस्टिगेशन एजेंसी (एनआईए) ने आरोप लगाया है कि ये सभी व्यक्ति प्रतिबंधित माकपा (माओवादी) की तरफ से काम कर रहे अग्रणी संगठन के सदस्य हैं। एनआईए का मानना है कि स्वामी माओवादी थे जिन्होंने देश में अशांति पैदा करने के लिए साजिश रची थी।
एल्गार परिषद मामला 31 दिसंबर 2017 को पुणे में हुए एक सम्मेलन से जुड़ा है, जिसमें कथित तौर पर भड़काऊ भाषण दिए गए थे। पुलिस के अनुसार, इन भाषणों के कारण अगले दिन भीमा-कोरेगांव युद्ध स्मारक के पास हिंसा भड़क गई। पुलिस का आरोप है कि इस सम्मेलन का आयोजन नक्सलियों ने किया था।
क्या है भीमा-कोरेगांव?
जनवरी 1818 को पुणे के भीमा-कोरेगांव में अंग्रेज़ों का मराठा सेना के साथ युद्ध हुआ था। इसमें अंग्रेज़ों की तरफ से लड़ते हुए महार रेजिमेंट ने मराठा सेना पर जीत हासिल की। दलित समुदाय इस जीत का जश्न भीमा-कोरेगांव युद्ध स्मारक पर मनाता है। पिछले कुछ सालों से इस आयोजन का विरोध किया जा रहा था। इसके कारण टकराव की स्थिति बनने का खतरा बना रहता था। राजनीतिक कारणों से 2017 में हुए इस टकराव ने हिंसक रूप ले लिया। पुलिस ने दलित अस्मिता की रक्षा के लिए बनाई गई यलगार परिषद को इसके लिए जिम्मेदार माना और कहा कि परिषद से जुड़े नेताओं ने सम्मेलन में आए लोगों को हिंसा के लिए भड़काया। स्वामी संभवतः इस तरह के किसी मामले में सबसे बुजुर्ग आरोपी थे।