गीत सावन माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया को उत्तर भारत के अधिकांश इलाकों में त्योहार के रूप में मनाया जाता है। ग्रामीण इलाके का यह प्रतिनिधि ऋतु-पर्व तीज या हरियाली तीज के नाम से जाना जाता है। राजस्थान, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और पंजाब ही नहीं, नेपाल में भी तीज लोक परंपरा का अहम हिस्सा है। हरियाणा में तो “तीज” को त्यौहार शब्द का ही पूरक समझा जाता है और त्यौहार के साथ तीज स्वतः ही जोड़ दिया दिया जाता है। कोई खास पकवान बनाने की जिद करते बच्चों को मां अक्सर समझाती है – “बेटा इसी चीज तो तीज-त्यौहार नै ए बण्या करै।” या फिर किसी खास अवसर पर कलह कर रहे लोगों को अक्सर टोक दिया जाता है – “तीज-त्यौहार नै तो टिक लिया करो।” इसके अलावा तीज का संबंध मन की खुशी से जुड़ा है। जब मेहमान को मेजबान की खातिरदारी से बेहद खुशी मिलती है, तो बरबस ही उसके मुंह से निकल पड़ता है – “आज तो तीज सी मन गी।”
यूं तो सावन का पूरा महीना ही आनंददायक होता है, लेकिन एक समय था जब तीज के दिन लोगों की उमंग का ठिकान नहीं रहता था। फसल बोकर खाली हो चुके किसान गर्मी की तपिश के बाद सावन की ठंडी फुहारों के बीच तीज का बेसब्री से इंतजार करते थे। वास्तव में उन्हें होली के पश्चात एक लंबे अंतराल के बाद ईद के दिन त्यौहार की खुशी मनाने का अवसर मिलता था। इस दिन बच्चे, बूढ़े, जवान – सभी पर एक अजीब सी मस्ती छा जाती और सभी अपने-अपने ढंग से इस त्यौहार को मनाने में जुट जाते। युवक दंगल सजाते और कबड्डी इत्यादि के खेलों का आयोजन करते। बच्चे गांव के जोहड़ किनारे झूलों का आनंद लेते। झूला झूलते हुए छपाक से जोहड़ के जल में कूदना बच्चों को विशेष आनंद देता। आजकल शहरों में बच्चे व युवक पतंग उड़ाते हैं और एक-दूसरे की पतंग काटने का मजा लूटते हैं। उस दिन सारा आकाश रंग-बिरंगी पतंगों से पट जाता है।
नववधुओं व युवतियों के लिए तीज का विशेष महत्व है। इस दिन वे हाथ-पांव में मेहंदी रचाती हैं, नई चूड़ियां पहनती हैं और खूब हार सिंगार करके सारी सखी-सहेली सज-धज कर झूला झूलती हैं। मोरों की पीहू-पीहू, कोयल की कुहू-कुहू और पपीहे की पी-पी के बीच चूड़ियों की खनखनाहट और पायल की छम-छम के संगीत में डूबे महिलाओं के कंठ से फूटते सुमधुर गीतों से संपूर्ण वातावरण संगीतमय हो जाता है।
परम्परा की बात करें, तो तीज के दिन घरों में खीर, पूड़े, गुलगुले, सुहाली, सेंवई, हलवा इत्यादि पकवान बनाए जाते हैं। रिमझिम फुहारों के बीच घर में बने इन देसी पकवानों के स्वाद के सम्मुख दुनिया के सारे व्यंजन फीके पड़ जाते हैं। इसके अतिरिक्त सावन का विशिष्ट पकवान दूध और मैदे से बना घेवर भी इस दिन खूब चाव से खाया जाता है। कुल मिलाकर तीज के दिन पूरा परिवार मस्ती और खुशी से सराबोर रहता है।
तीज अन्य त्योहारों के आगमन का प्रतीक भी है। तीज के बाद त्योहारों के लंबी श्रृंखला शुरू हो जाती है जो होली तक चलती है। कहावत भी है कि “आई तीज बिखरेगी बीज।” इस बात को भी बहुत कम लोग जानते हैं कि तीज एक लाल रंग का सुंदर सा जीव होता है जो बरसात के दिनों में खेतों में दिखाई देता था। अब न पहले की तरह सावन की झड़ी लगती है और न तीज दिखाई देती है।
सोंधी-सोंधी मिट्टी की महक लिए तीज वास्तव में महिलाओं, और विशेषकर नव युवतियों व नवविवाहिताओं का पर्व है। इसलिए तीज को “नवेली तीज” भी कहते हैं। तीज का महिलाओं से गहरा संबंध होने का एक कारण यह भी बताया जाता है कि सावन मास की तृतीया को ही मां भवानी अर्थात गौरी (पार्वती) का जन्म हुआ था। इसलिए महिलाएं इस दिन को विशेष उत्साह से मनाती हैं। वे सजधज कर झूला झूलने जाती हैं और आपस में खूब हंसी ठट्ठा व चुहलबाजी करती हैं। झूला झूलते झुलाते हुए वे मल्हार के गीत गाती हैं, जिनमें अधिकतर मिलन और वियोग से संबंधित होते हैं। यह गीत इतने भावमिश्रित, सारगर्भित और सुरीले होते हैं कि इनकी गूंज से संपूर्ण वातावरण रोमांचित हो उठता है। इस अवसर का का प्रयोग वे ससुराल पक्ष की तकलीफों और मायके के सुखों का वर्णन करते हुए अपनी अंतर-व्यथा को अभिव्यक्त करने के लिए भी करती हैं। “कड़वी कचरी हे मां मेरी कचकची री, हेजी कोए कड़वे सासड के बोल, बहोत दुहेला हे मां मेरी सासरा जी” जैसे गीत सुनकर स्वतः ही आंखें नम हो जाती हैं।
हरियाणा में नवविवाहिता लड़की पहले सावन में अपने मायके में रहती हैं। इस दौरान वे ससुराल के बंधनों से आजाद हो मायके के उन्मुक्त वातावरण में सगी-सहेलियों के साथ हास-परिहास कर खूब मस्ती करती हैं। इसके बावजूद नई-नई शादी होने के कारण अंदर ही अंदर पति से मिलने की छटपटाहट भी कहीं न कहीं उनके दिल में रहती है। उनकी यह चाह एकांत के क्षणों में व झूला झूलते समय लोकगीतों के माध्यम से मुखरित होती है। झूला झुलाती हुई सहेली भी उन्हें खूब चिढ़ाती हैं। वे उन्हें तेज-तेज झूटे देती हैं और तब तक नीचे नहीं उतारती, जब तक वे अपने पति का नाम नहीं बता देती। इसी तरह नवविवाहिताओं को पेड़ की ऊंची टहनी के पत्तों के रूप में अपनी सांसों का नाक तोड़ कर लाने के लिए भी मजबूर किया जाता है। जाहिर है कि यह सब हास-परिहास भी पति से दूरी के एहसास को कम नहीं कर पाता।
तीज को झूलों का त्यौहार भी कहा जाता है। यूं तो सावन के आरंभ में ही जगह-जगह रंग-बिरंगे झूले डल जाते हैं और युवतियां शाम के समय झूला झूलना आरंभ कर देती हैं, लेकिन तीज के दिन तो झूलों की छटा देखते ही बनती है। वर्षा के जल से लबालब भरे जोहड़ों के किनारे खड़े हरे भरे पेड़ों के झुरमुट में जब ऊंची पींग बढ़ाती नवयुवतियों की किलकारियां गूंजती हैं, तो पुरुषों के हृदय की धड़कन तेज हो जाती है। हरियाणा में ग्रामीण युवतियां पींग बढ़ाने में पारंगत रही हैं। एक समय तीज के अवसर पर एक-एक पेड़ पर कई-कई झूले डल जाते थे परंतु युवतियां फिर भी बिना एक-दूसरे से टकराए आराम से झूलती रहती थीं। अनेक बार तो तीन-तीन झूले एक दूसरे के विपरीत दिशा में एक ही स्थान से होकर गुजरते, लेकिन उनके बीच इतना बेहतर तालमेल और गति में सामंजस्य रहता कि वे आपस में टकराते नहीं। जब दो-दो लड़कियां खड़ी होकर बिना लंगर की मदद से पींग बढ़ाती हैं, तो देखने वाले बस देखते ही रह जाते हैं। महिलाएं एक ही झूले पर आमने-सामने बैठकर झूलने का भी खूब आनंद देती हैं। इस बीच महिलाओं के बीच झूला झूलने की प्रतियोगिता भी चलती। पुरुष हालांकि झूला कम ही झूलते, पर भाभियों को झुलाने में देवरों की भी कम होड़ नहीं लगती। एक-दूसरे से लंबे झूटे देकर भाभियों को रिझाने की उनकी प्रतियोगिता भी कम रोचक नहीं होती।
तीज के अवसर पर भाई अपनी बहन के लिए उसकी ससुराल में कोथली लेकर जाता है। ससुराल में लड़की बड़ी बेसब्री से अपने भाई के आने का इंतजार करती है। “नीम्बां कै निम्बोली लाग्गी, सामणिया कद आवैगा, आवैगा मेरी मां का जाया, के-के सौदा ल्यावैगा” जैसे गीत ऐसी ही बहनों के मनोभावों को अभिव्यक्त करते हैं। क्योंकि यदि किसी कारणवश उसके मायके से कोई कोथली लेकर नहीं आता तो बेचारी को ससुराल वालों के खूब ताने सुनने को मिलते हैं। कोथली में बहन के अतिरिक्त ससुराल पक्ष के अन्य रिश्तेदारों व बच्चों के वस्त्र, आभूषण तथा घेवर, लड्डू, सुहाली और शक्करपारे इत्यादि मिठाइयां होती हैं। इसी प्रकार यदि शादी के बाद तीज के अवसर पर लड़की अपने मायके में हो, तो ससुराल पक्ष की ओर से बहू का सिंधारा उसके पीहर में पहुंचाया जाता है। सिंधारा अक्सर जेठ लेकर आता है। बदले में कन्या पक्ष के लोग उससे सवाया सामान लड़की के जेठ को देकर विदा करते हैं।
हरियाली तीज ग्रामीण समुदाय का अनूठा पर्व है, परंतु प्रकृति के अनुपम सौंदर्य से सराबोर सावन की रिमझिम फुहारों के बीच हृदय की खुशी को अभिव्यक्ति प्रदान करता यह पर्व भी अब अन्य त्योहारों की तरह अपनी वास्तविकता खोता जा रहा है। यद्यपि अभी तक गांवों में तीज का पारंपरिक स्वरूप बचा हुआ है, लेकिन न तो लोगों में पहले सा उत्साह है और न ही उमंग। शहरीकरण, आधुनिकता की चकाचौंध और व्यक्तिवादिता के बढ़ते प्रभाव से तीज का लोक स्वरूप काफी हद तक प्रभावित हुआ है। इसके कारण इस पर्व की ग्राम्य सुलभ सादगी लुप्त होती जा रही है। अब न तो पेड़ों के झुरमुट रहे और न ही घागरे की घूम, न झूलों की बहारें और न मिट्टी की सोंधी सोंधी गंध लिए रसीले लोकगीतों की मधुरता। यहां तक कि आधुनिक मिठाइयों के बीच पूड़े, गुलगुले, सुहाली व शक्करपारे भी पीछे छूट गए हैं।
गांव में तो फिर भी तीज उत्सव के प्रति अभी कुछ उत्साह बाकी है, परंतु शहरों में तो हम इस पर्व की महत्ता को बिल्कुल ही भूल गए हैं। सच ही है, अपनी जड़ों से कटी व संस्कृति से दूर बिजली के हिंडोलों में झूलने वाली युवा पीढ़ी क्या जाने नीम के डाहले में पींग बढ़ाना! लेकिन यदि अब भी हम अपनी लोक परंपराओं व पर्वों के प्रति गंभीर नहीं हुए, तो वह दिन दूर नहीं जब लोग तीज का नाम तक भूल जाएंगे। तब न पींग रहेगी, न लंगर और न ही पाटडी। फिर किसकी पींग के नीचे नाचेगा लांडा मोर!
– अविनाश सैनी।