वह
जन्म लेती है तो
सहम जाती है दुनिया
हिल जाती है पितृसत्ता
बोझ से दब जाती है धरती।
वह बड़ी होती है
किंवदंतियां गढ़ती हुई,
चुपचाप
सबसे आंख बचाकर
और एकाएक
हो जाती है ढींग कि ढींग
किसी तिलिस्म की तरह।
दुनिया के माथे पर
लकीरें खिंच जाती हैं।
जिसके दम पर हैं
रंगीन नज़ारे
संसार का तमाम सौंदर्य
जिसके होने में है,
अपने दुख-दर्द को
खूबसूरत रचनाओं में ढालती
वह जीवनशक्ति
जीती है
एक अभिशप्त जीवन
तमाम उम्र
झेलती है
अपनी ही कोख में
अपने ही अंश को
मिटाने की पीड़ा।
आश्चर्यजनक है उसका होना
लेकिन वह है
अपनी तमाम सृजनशीलता के साथ
ज़िंदगी के गीत गाती हुई
पितृसत्ता से टकराती हुई
दुनिया को नर्क बनने से
बचाती हुई।
– अविनाश सैनी