सत्ता बचाने के लिए पांच-पांच मोर्चों पर जूझना होगा ममता दीदी को
तीसरी बार बंगाल की सत्ता पर काबिज होने की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की राह इस बार आसान नहीं है। इसके लिए उन्हें एक-दो नहीं, बल्कि पांच-पांच मोर्चों पर लोहा लेना होगा और ये सभी मोर्चे ऐसे हैं, जिनसे निपटना लोहे के चने चबाने जैसा है। कारण यह है कि तृणमूल नेतृत्व को इन सब पर सीधी लड़ाई लड़नी होगी और थोड़ी सी भी चूक भी काफी नुकसानदायक साबित हो सकती है।
सबसे पहले ममता को अपने शासन के प्रति उपजे ‘एंटी इनकंबेंसी फैक्टर’ से जूझना पड़ेगा। उनके 10 सालों के शासन में ऐसी कई चीजें हुई हैं, जिनसे सरकार के खिलाफ असंतोष पैदा हुआ है। ममता दीदी के लिए असंतोष की इस चिंगारी को दावानल बनने से रोकना सबसे बड़ी चुनौती रहेगी।
इसके अलावा, उन्हें पार्टी में व्याप्त अंतर्द्वद्व पर अंकुश लगाना होगा। उत्तर से लेकर दक्षिण बंगाल और जंगलमहल तक तृणमूल के भीतर सबकुछ ठीक नहीं चल रहा। जिस सिंगुर और नंदीग्राम आंदोलन ने ममता को सीएम की कुर्सी तक पहुंचाया, वहीं के तृणमूल नेता पार्टी नेतृत्व तथा चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर (पीके) के फैसले से नाराज चल रहे हैं। अब तक तृणमूल के कई मंत्री व विधायक इसे लेकर नाखुशी जाहिर कर चुके हैं। मंत्री शुभेंदु अधिकारी तो पूरी तरह बगावत के मूड में हैं। उनके अलावा, सिंगुर के दो प्रमुख विधायक रवींद्रनाथ भट्टाचार्य व बेचाराम मन्ना भी नाराज़ हैं। इसी तरह कई जिलों में गुटबाजी व अंदरूनी लड़ाई छिड़ी है। यह तो अभी की स्थिति है। जब चुनावी टिकट का एलान होगा तो हालात क्या होंगे, इसका अंदाजा फिलहाल जारी उठापटक से सहज ही लगाया जा सकता है।
अगर ममता दीदी ने इन दोनों संकटों से पार पा भी लिया, तो तीसरा अहम और बड़ा मोर्चा भाजपा है, जो बिहार विजय के बाद पूरी ताकत के साथ बंगाल के चुनावी समर में उतर रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह तक बंगाल चुनाव को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाए हुए हैं। यही कारण है कि ममता दीदी को मात देने के लिए भाजपा अभी से चुनावी रण में उतर चुकी है।
ममता के लिए चौथा मोर्चा असदुद्दीन ओवैसी हैं। उनकी पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआइएमआइएम) द्वारा बंगाल की सीमा से लगते बिहार के मुस्लिम बहुल इलाकों में पांच विधानसभा सीटें जीतने के बाद ओवैसी ने बंगाल में भी चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी है। उन्होंने बंगाल की 75 फीसदी मुस्लिम आबादी वाले मुर्शीदाबाद, 65 फीसदी आबादी वाले मालदा, करीब 40 फीसदी आबादी वाले उत्तर व दक्षिण दिनाजपुर समेत कई अन्य जिलों में उम्मीदवार उतारने की बात कही है।
बता दें कि बंगाल में करीब 30 फीसदी वोटर मुस्लिम हैं, जिनका करीब 100 -110 सीटों पर प्रभाव है। वर्ष 2011 व 2016 के विधानसभा चुनावों में मुस्लिम वोटरों ने ममता को वोट दिया था, जिसकी वजह से वे सत्ता तक पहुंची थीं। ओवैसी के मैदान में उतरने पर तृणमूल कांग्रेस की मुस्लिम वोट बैंक पर पकड़ कमजोर हो सकती है। वर्ष 2011 में वाममोर्चा को हराने के बाद से ममता के नेतृत्व वाली पार्टी को ही अल्पसंख्यक वोटों का फायदा होता आ रहा है। हालांकि कांग्रेस व वाममोर्चा को भी कुछ मुस्लिम वोट मिलते रहे हैं। मुर्शीदाबाद और मालदा, इन दोनों जिलों में कांग्रेस की पकड़ रही है, लेकिन ओवैसी के उतरने से लड़ाई काफी दिलचस्प हो सकती है। तृणमूल नेताओं का तर्क है कि ओवैसी का मुसलमानों पर प्रभाव हिंदी और उर्दूभाषी समुदायों तक सीमित है, जो राज्य में मुस्लिम मतदाताओं का सिर्फ छह फीसदी है।
यह सही है कि बांग्लाभाषी मुस्लिम मतदाता तृणमूल कांग्रेस के लिए हमेशा फायदेमंद रहे हैं, लेकिन वरिष्ठ मुस्लिम नेताओं का कहना है कि एआइएमआइएम के चुनाव लड़ने से यहां के समीकरण बदल सकते हैं। ओवैसी की पार्टी के नेताओं के अनुसार, राज्य के 23 जिलों में से 22 में उन्होंने अपनी इकाइयां स्थापित कर ली हैं। वे लोग बंगाल में चुनाव लड़ेंगे और इस बाबत रणनीति तैयार कर रहे हैं। ओवैसी ने ममता के साथ चुनाव पूर्व गठबंधन की पेशकश करते हुए कहा है कि उनकी पार्टी आगामी विधानसभा चुनाव में भाजपा को हराने में तृणमूल की मदद करेगी। हालांकि तृणमूल ने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है, लेकिन बिहार चुनाव के नतीजों के बाद पार्टी के वरिष्ठ नेता व सांसद सौगत रॉय ने कहा था कि ओवैसी भाजपा की बी टीम है और यहां उसका कुछ नहीं होने वाला।
तृणमूल कांग्रेस के रास्ते की पांचवीं बाधा है कांग्रेस-वामपंथी गठबंधन। इससे भी ममता को निपटना होगा, क्योंकि ओवैसी के बाद यह गठबंधन ही मुस्लिम वोट बांट सकता है, जिसका सीधा लाभ भाजपा को होगा। पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा को मालदा, उत्तर व दक्षिण दिनाजपुर में इसका काफी फायदा हुआ था।