अर्थशास्त्रियों ने लिखा कृषि मंत्री तोमर को पत्र
हाल ही में,17 दिसम्बर को, देश के कई अर्थशास्त्रियों ने किसानों की मांग के समर्थन में तर्क देते हुए कृषि मंत्री को एक पत्र लिखा है जिस के बारे में समाचार माध्यमों में बहुत कम चर्चा हुई है। यहां हम अपने पाठकों के लिए यह पूरा पत्र छाप रहे हैं।
सेवा में
श्री नरेंद्र सिंह तोमर,
माननीय मंत्री कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री,
भारत सरकार.
विषय : हाल में पारित कृषि कानूनों से सम्बंधित कुछ गंभीर मुद्दे जिन के चलते इनका रद्द करना उचित होगा।
प्रिय महोदय,
देश भर के किसानों, विशेष तौर पर राजधानी क्षेत्र के किसानों द्वारा जारी अभूतपूर्व आन्दोलन के समय हम आप को ऐसे अर्थशास्त्रियों के रूप में सम्बोधित कर रहे हैं जिन्होंने ने लम्बे समय से कृषि नीति के क्षेत्र में काम किया है। हम यह समझते हैं कि सरकार को हाल में पारित तीनों कृषि कानूनों को रद्द कर देना चाहिए क्योंकि ये देश के छोटे एवं सीमान्त किसानों के हित में नहीं हैं और किसान संगठनों के व्यापक हिस्सों ने इन के बारे में बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न उठायें हैं।
यह सही है कि करोड़ों छोटे किसानों के हितों के लिए कृषि विपणन व्यवस्था में बदलाव की ज़रूरत है परन्तु सरकार द्वारा लाये गए नए कानूनों की दिशा ठीक नहीं है। यह कानून किसानों को लाभकारी मूल्य क्यों नहीं मिलता की गलत समझ एवं पुराने कानूनों में किसानों को कहीं भी अपनी उपज बेचने का अधिकार नहीं था या विनियमित मंडी किसानों के हित में नहीं है सरीखी गलत अवधारणाओं पर आधारित है। अग्रलिखित पांच महत्वपूर्ण कारणों से सरकार द्वारा एक पैकेज के रूप में किए गए ये बदलाव मूल रूप में ही भारत के छोटे किसानों के हित में नहीं हैं।
कृषि क्षेत्र में राज्य सरकार की भूमिका को कमज़ोर करते हैं : ऐसा केन्द्रीय कानून बनाना जो कृषि बाज़ार के नियंत्रण में राज्य सरकार की भूमिका को नज़रंदाज़ करता हो केंद्र और राज्यों के सम्बन्धों के शक्ति संतुलन एवं किसानों के हितों, दोनों की दृष्टि से गलत है। किसानों के लिए राज्य सरकार तक पहुँच ज्यादा आसान है और राज्य सरकार का गाँव स्तर का तंत्र किसानों के प्रति ज्यादा जवाबदेह है। इस लिए कृषि उपज के लिए केन्द्रीय कानून के तहत ‘व्यापार क्षेत्र’ स्थापना करने की बजाय राज्य सरकार द्वारा कृषि बाज़ार का नियमन ज्यादा बेहतर है। पहले ही कृषि मंत्रालय के अनुसार जुलाई 2019 तक 20 से अधिक राज्यों ने अपने कृषि उपज मंडी कानूनों (एपीएमसी) में बदलाव कर के निजी मंडियों, ई-मंडी, सीधे खाते में भुगतान, ई-एनएएम (राष्ट्रीय ई मंडी) इत्यादि की व्यवस्था कर दी थी और ये सब राज्य सरकार के नियंत्रण में काम कर रही थी। कृषि कानून में किसी भी बदलाव या नई व्यवस्था के लिए सभी हित धारकों, जिन में किसान, व्यापारी, आढ़ती इत्यादि शामिल हैं, की सहमति होनी चाहिए और यह स्थानीय परिस्थितियों को ध्यान में रख कर राज्य सरकार बेहतर ढंग से सुनिश्चित कर सकती है, बजाय केन्द्रीय स्तर पर जारी एकतरफा एवं एकरूपी बदलाव के।
दो तरह का बाज़ार और दो तरह के नियम : नए कानूनों के साथ एक बड़ी समस्या यह है कि इन के चलते दो तरह के समानांतर कृषि बाज़ार खड़े हो जायेंगे; एक ओर होंगे लगभग अनियंत्रित ‘व्यापार क्षेत्र’ और दूसरी ओर विनियमित एपीएमसी मंडी। दोनों में दो अलग तरह के कानून, दो तरह की फीस और नियम इत्यादि लागू होंगे, जिस के चलते अभी से व्यापारी विनियमित मंडी को छोड़ कर अनियंत्रित मंडी की ओर जा रहे हैं। अगर एपीएमसी मंडी में मिलीभगत और बाज़ार नियंत्रण की समस्या है तो यह अनियंत्रित मंडी में भी जारी रहेंगी। नियंत्रित एपीएमसी मंडी में तो फिर भी मिलीभगत और बाज़ार नियंत्रण की समस्या से निपटने के लिए एक व्यवस्था है पर अनियंत्रित ‘व्यापार क्षेत्र’ में इस के रोकथाम की कोई व्यवस्था नहीं है। किसानों का शोषण भाव एवं भाव के अलावा (जैसे तौल, वर्गीकरण, नमी निर्धारण इत्यादि) दोनों तरह से होता है। किसानों का यह अनुभव रहा है कि दूर दराज़ के वो इलाके, जैसे आदिवासी क्षेत्र, जहाँ एपीएमसी मंडी सरीखी विनियमित व्यवस्था नहीं होती, में किसानों का ज्यादा शोषण होता है।
बिखरा बाज़ार, खरीदार का एकाधिकार और कीमतों की खोज : नए कानून आने से पहले भी कृषि उपज की बिक्री का बड़ा हिस्सा विनियमित एपीएमसी मंडी के बाहर ही बिकता था परन्तु विनियमित एपीएमसी मंडी में होने वाली दैनिक बोली के चलते कीमत का एक मानदण्ड स्थापित हो जाता था जो किसानों को भाव का एक अंदाज़ा देता था। कीमत के किसी ऐसे मापदंड के बिना जगह-जगह एकाधिकारी खरीददार विकसित हो जाएंगे। 2006 में बिहार में एपीएमसी मंडी कानून ख़त्म होने के बाद का अनुभव यह रहा है कि किसानों के विकल्प और मोलभाव करने की क्षमता कम हो गई जिस के चलते बिहार के किसानों को बाकी राज्यों के मुकाबले अपनी उपज का कम भाव मिल रहा है।
करार खेती के दो भागीदार गैर बराबर हैं : करार खेती कानून में दो भागीदारों, छोटे किसान और कम्पनियों, के बीच की विशाल असमानता को नज़रंदाज़ कर के किसान हितों की सुरक्षा की पर्याप्त व्यवस्था नहीं की गई है। संभावना यही है कि वर्तमान व्यवस्था जिस में ज़्यादातर करार मौखिक होते हैं एवं संग्रहकों (बिचोलियों) के माध्यम से होते हैं, जिस के चलते कम्पनियों की कोई ज़िम्मेदारी नहीं रहती, जारी रहेगी। इस समस्या से निपटने की नए कानून में कोई व्यवस्था नहीं है। इस के अलावा यह भी चिंता है कि ‘कृषि सेवाओं’ के करार सम्बन्धी प्रावधानों एवं सरकार की पट्टे के प्रावधानों के शिथिलीकरण की योजना के चलते, बड़े पैमाने पर कम्पनियों द्वारा खेती की राह खुल जायेगी। हालांकि सैद्धांतिक तौर पर करार खेती कानून ऐच्छिक हैं परन्तु कृषि क्षेत्र के संकट के चलते, कीमतों का भरोसा न होने के कारण, किसान इस ओर आकर्षित हो सकते हैं। जबकि करार खेती का अनुभव इस बारे में आशंकित करता है कि बिना किसानों के हितों की रक्षा के प्रावधानों के ये किसानों के हित में होगा।
विशालकाय कृषि व्यावसायिक कम्पनियों का दबदबा हो जाएगा : यह स्पष्ट है कि इन तीनों कृषि कानूनों का सम्मिलित प्रभाव यह होगा कि कृषि व्यावसाय में कार्यरत कम्पनियों को सरकारी नियमन और लाइसेंस इत्यादि की प्रक्रिया, किसानों, व्यापारियों एवं आढ़तियों के वर्तमान तानेबाने को छिन्नभिन्न करने और स्टाक सीमा, प्रसंस्करण एवं बिक्री सम्बन्धी बन्धनों से छूट मिल जायेगी। इस के चलते यह चिंता होना लाजमी है कि कृषि क्षेत्र में चंद विशालकाय कम्पनियों का दबदबा हो जाए जैसा कि अमरीका और यूरोप में हुआ है। इन देशों में ऐसी व्यवस्था के चलते ‘या तो फैलो या छोड़ जाओ’ का दबाव बना था जिस के चलते छोटे किसान, छोटे व्यापारी एवं स्थानीय कम्पनियां कृषि क्षेत्र से बाहर हो गए। ऐसे उपायों की बजाय भारतीय किसानों की ज़रूरत ऐसी व्यवस्था कि है, जिस में उन की मोलभाव करने की ताकत बढ़े और भण्डारण, प्रसंस्करण एवं बिक्री के लिए आवश्यक आधारभूत संरचना किसान एवं किसान समूहों (एफपीओ) के हाथ में हो ताकि वे कृषि उपज श्रृंखला में ऊपर उठ सकें। ऐसा रास्ता किसानों की आय बढ़ाएगा। सरकार के कुछ पुराने कदम इस दिशा में किसानों के सहायक थे। इस के विपरीत नए कानून भण्डारण, प्रसंस्करण एवं बिक्री के लिए आवश्यक आधारभूत संरचना पर निवेश कृषि व्यवसाय की कम्पनियों के भरोसे छोड़ कर उन को कृषि उपज श्रृंखला में अपनी स्थिति मज़बूत करने का मौका देते हैं और सरकार किसानों की इस दिशा में आगे बढ़ने में सहायता करने के वादे से पीछे हट रही है।
इन बुनियादी कारणों के चलते, हमें नहीं लगता कि नए कानूनों की कुछ धाराओं में संशोधन करने से किसानों द्वारा उठाये मुद्दों का निराकरण हो सकेगा। उदहारण के तौर पर, अगर सरकारी नियमन के बाहर ‘व्यापार क्षेत्र’ की अनुमति किसानों के हित में नहीं है तो तत्सम्बन्धी कुछ धाराओं में परिवर्तन करने से कुछ नहीं होने वाला।
इसलिए हम सरकार से अनुरोध करते हैं कि वह इन कानूनों को वापिस ले एवं किसान संगठनों एवं अन्य सभी हितधारकों से व्यापक चर्चा से आगे की ऐसी राह तय करे जो सभी किसानों और अर्थव्यवस्था दोनों के लिए टिकाऊ और समभावी रूप से उपयोगी हो। यही सही जनतांत्रिक तरीका होगा।
सादर।
पत्र लिखने वाले अर्थशास्त्री
– प्रो. नरसिम्हा रेड्डी, सेवानिवृत प्रोफेसर, अर्थशास्त्र, हैदराबाद विश्वविद्यालय, पूर्व प्रोफेसर राष्ट्रीय ग्रामीण विकास संस्थान।
– प्रो. कमल नयन काबरा, सेवा निवृत प्रोफेसर अर्थशास्त्र, भारतीय लोक प्रशासन संस्थान, एवं पूर्व प्रोफेसर, सामाजिक विज्ञान संस्थान, नई दिल्ली।
– प्रो. के.एन. हरिलाल, प्रोफेसर (छुट्टी पर), सेंटर फॉर डेवलपमेंट स्टडीज, त्रिवेंद्रम, और सदस्य, केरल राज्य योजना बोर्ड।
– प्रो राजेन्द्र चौधरी, पूर्व प्रोफेसर, अर्थशास्त्र विभाग, महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय, रोहतक, हरियाणा।
– प्रो. सुरेन्द्र कुमार, सीनियर प्रोफेसर, सीआरआराईडी, चंडीगढ़, और पूर्व प्रोफेसर, अर्थशास्त्र विभाग, महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय, रोहतक, हरियाणा।
– प्रो. अरुण कुमार, मैल्कम एस अदिशेशिया पीठ प्रोफेसर, सामाजिक विज्ञान संस्थान, नई दिल्ली।
– प्रो. रंजीत सिंह घुमन, प्रोफेसर ऑफ एमिनेंस (अर्थशास्त्र), जीएनडीयू, अमृतसर, और प्रोफेसर, अर्थशास्त्र, सीआरआराईडी, चंडीगढ़।
– प्रो. आर.रामकुमार, नाबार्ड पीठ प्रोफ़ेसर, टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान, मुंबई।
– प्रो. विकास रावल, एसोसिएट प्रोफेसर, अर्थशास्त्र, सीईएसपी, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली।
– प्रो. हिमांशु, एसोसिएट प्रोफेसर, अर्थशास्त्र, सीईएसपी, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली।
संपर्क सूत्र: राजेन्द्र चौधरी 9416182061, rajinderc@gmail.com