बीच बहस में
पाश ने लिखा था कि ‘पुलिस की मार सबसे खतरनाक नहीं होती।’ उसी कविता में उन्होंने लिखा था कि ‘सबसे खतरनाक होता है/मुर्दा शांति से भर जाना।’
जयराज और उनके पुत्र बेनिक्स की बर्बरता से हुई मृत्यु से भी अधिक खतरनाक है, इस देश के लोगों का मुर्दा शांति से भर जाना। विशेष तौर पर हिंदी साहित्यकारों में यह चुप्पी उनके मृतप्रायः होने का संकेत दे रही है। हिंदी साहित्यकार गुटबाजी में उलझे हुए हैं। अपनी ही पुस्तकों की मार्केटिंग से निजात पाकर प्रसिद्धी पाने या चर्चा का केंद्र बनने के नए नए नुस्खों पर काम चल रहा है। इसका एक मोटा मोटा कारण जो हम विद्यार्थियों को समझ में आता है, यह है कि लेखकों पर बड़े प्रकाशनों और महानगरीय जीवन व्यवस्था का दबाव। खैर, मुक्तिबोध ऐसे समय में याद आते हैं – ‘चुप न बैठ कि बोल दे/वह सत्य जो दिल में बहुत बेचैन है।’ जिनकी संवेदनाओं में शहरियत का कीड़ा लग चुका है, उनका हृदय ऐसी घटनाओं पर बेचैन हो, यह मुमकिन दिखाई नहीं पड़ता। जब लोग भूख से मर रहे हैं, बड़े बड़े प्रकाशन पाककला के कार्यक्रम चला रहे हैं। इससे भयावह स्थिति हिंदी समाज के लिए क्या होगी?
अभी हाल ही में पूरी दुनिया में अमेरिकी पुलिस की बर्बरता के खिलाफ प्रदर्शन हुए। उसमें हर प्रकार के लोग शामिल थे। भारत में भी बहुत कुछ कहा-सुना गया। लोगों ने ब्लॉग बनाए, फेसबुक पर पोस्ट लिखीं, ई पत्रिकाओं में छोटे-मोटे लेख छपे, यह दिखने के लिए कि हम संवेदनाओं के मामले में अंतर्राष्ट्रीयता से लबालब भरे हुए हैं। लेकिन, भारत में यदि ऐसा कुछ हो, तो हम उत्तर और दक्षिण की पाटी में बंट जाते हैं। हिंदी पट्टी के लिए यह शर्मनाक है। क्या भारतीय लोग अमेरिकी या अन्य दुनिया के इंसानों की तुलना में कम इंसान हैं? यह केवल पहली घटना नहीं है। महामारी के फैलने के बाद लगाए गए लॉकडाउन में भी पुलिस कि बर्बरता की घटनाएं सामने आई थी। क्या तब भी हम कोई मजबूत प्रदर्शन कर पाए?
लिख लीजिए, यह वो समय है जिसका पूरा ब्यौरा इतिहास में लिखा जाएगा। आने वाली पीढियां पूछेंगी कि उस समय के बुद्धिजीवियों ने क्या किया?
यह घटना सामान्य घटना नहीं हैं। यह घटना मुझे व्यक्तिगत तौर पर यह महसूस कराती है कि क्यों भारतीय जनमानस लम्बे समय तक अंग्रेजों का गुलाम रहा! या भारतीय जनमानस को क्यों अभी तक उसके कानूनी आस्तित्व का एहसास नही है? सिर्फ सस्पेंड कर देना क्या ‘मुनासिब कार्यवाही’ है? क्या मौत के लिए कसूरवार केवल एक या दो व्यक्ति ही हैं, या इसके पीछे कोई मानसिकता है, जिसे बदलने की दरकार है! हम आखिर कितने भारतीय बचे हैं? हम भारतीयों ने अपनी संवेदनाओं के साथ क्या किया है? हम कितने इंसान बचे हैं? ये कुछ सवाल हैं जो कई दिनों से दिमाग में घर किए बैठे हैं।
~योगेश शर्मा